Sunday, 27 September 2015

फिरकापरस्ती एक 'नासूर'

अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है.

सब तारीफे अल्लाह के लिए है जो तमाम जहाँ का पालने वाला है, हम उसी की तारीफ़ करते है और उसी का शुक्र अदा करते है. अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक नहीं, वह अकेला है और उसका कोई साझी और शरीक नहीं. मुहम्मद (स.अ.व.) अल्लाह के बंदे और रसूल है.

अल्लाह कि बेशुमार रहमते और सलामती नाजिल हो उनके रसूल (स.अ.व.) पर और उनकी आल-औलाद और उनके साथियो पर.

फिरकापरस्ती क्या है?
फिरकापरस्ती का मतलब है किसी की सोच, राय, बात या आमाल कि बुनियाद पर सबसे अलग होकर अपना एक गिरोह या जमात बना लेना. आज के इस माहोल में अगर आप नजर करे तो आपको मुस्लिम उम्मत में बहुत सारे फिरके मिलेंगे. कोई अपने आपको सुन्नी कहता है, कोई शिया, हनफ़ी, हम्बली, मालिकी, शाफई, देवबंदी, बरेलवी, कादरियाह, चिश्तियाह, अहमदिया, जाफरियाह, वगैरह वगैरह. हर एक फिरका एक दूसरे से मुहं मोड़कर अपना अपना मजहब बना लिया है. जबके उनके मजहब के कानून और आमाल देखे तो वह एक दूसरे से बिलकुल अलग है फिर भी अपने आपको मुसलमान कहते है. हर एक ने अपने अपने इमाम, किताबें, मस्जिदे, मदरसे, और मुसल्ली (नमाजी) बाँट लिए है और यहाँ तक कि अपनी पहचान के लिए पहनावे में कुछ ना कुछ खास बातें रख ली है जिसकी बुनियाद पर वह फिरका लोगो से अलग पहचान लिया जाए. बड़े हैरत कि बात यह है कि हर एक फिरका अपने आपको सिराते मुस्तकीम (सीधे रास्ते) पर जानता है और कहता है. उनके पास जो इस्लामी सोच है उससे वह खुश है. इस बात को अल्लाह तअाला ने कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है, 
              “जिन्हों ने अपने दीन के टुकडे टुकडे कर दिए और गिरोह (फिरको) में बंट गए, हर गिरोह (फिरका) उसी से खुश है जो उसके पास है” (सुर: रूम:३२) 
हर फिरका दूसरे को गुमराह मानता है और अपने आपको सीधी राह पर जानता है. ये ही बात यहूद और नसारा में भी थी जिसे अल्लाह तअाला ने कुरआन में बताया है, 
                  “यहूद ने कहा ‘नसारा किसी बुनियाद पर नहीं’ और नसारा ने कहा ‘यहूद किसी बुनियाद पर नहीं’ हालाकि वे दोनों अल्लाह तअाला कि किताब पढते है” (सुरह बकरह:११३)

फिरकाबंदी कि वजह?
मुस्लिम उम्मत में जो फिरकाबंदी पैदा हुई उसकी तहकीक अगर कि जाए तो यह बुनियादी वजह मिलती है कि हमने अल्लाहताला के कुरआन को और रसूल (स.अ.व.) के फरमान को छोड दिया है. इन दोनों चीजों को छोडकर हमने अपने अपने इमाम, आलिम, मौलवी कि बातों को अपना लिया है और उनके कौल और हुक्मो को उस हद तक का दर्जा दिया है कि उनकी तमाम बातो को सच समझ लिया है. आम मुसलमान ने कभी यह कोशिश नहीं की के इन बातो को कुरआन और हदीस के मुकाबले में रखे या उसकी तहकीक करे. अगर दूसरे अल्फाज में कहा जाए तो हमने अपने आलिमो को ‘रब’ बना लिया है. अल्लाह तअाला कुरआन में फरमाते है:-
      “उन्होंने अपने आलिमो और दरवेशों को ‘रब’ बना लिया है.(सुर: तौबा:३१) 

यह आयत का साफ़ मतलब होता है कि किसी शख्श को इज्जत में वो मक़ाम देना के उसके हर कौल (शब्द) को आखरी कौल माना जाए तो वह उसकी इबादत करने के बराबर हुआ. क्योकि आखरी कौल तो सिर्फ अल्लाह तअाला का कौल मुबारक है और उसी की इबादत की जाती है. जब अल्लाह तअाला कोई फैसला कर देता है और उसे अपने रसूल (स.अ.व.) के जरिये उम्मत में उतारता है तो उसमे तब्दीली करने और शरई हद कायम करने का किसी और को हक नहीं.
                        अरब के अइम्मा इमाम अबू हनीफा (र.अ.), इमाम शाफई (र.अ.), इमाम मालिक (र.अ.) और इमाम इब्ने हम्बल (र.अ.) जिनकी ओर हम अपनी निस्बत करते है उन्होंने क्या इस्लाम को छोडकर अपना अलग मजहब बनाया था या बनाने का हुक्म दिया था? हरगिज नहीं बल्कि सभी इमामों का ये ही कौल था कि अगर हमारी बात कुरआन या हदीस कि बात से टकराये तो हमारी बातो को छोडकर कुरआन या हदीस कि बातों को सीने से लगा लेना. फिर हम उम्मत को क्या हुआ है कि हमें कुरआन कि आयत या सहीह हदीस मिलने के बावजूद सिर्फ अपनी जिद कि वजह से अपने इमामों और आलिमो कि बातों को अपनाये हुए है?

फिरकाबंदी के नुक्सानात!
फिरकाबंदी का सबसे बड़ा नुक्सान यह है कि हम अल्लाह तअाला और उसके रसूल(स.अ.व.) से दूर हो जायेंगे. इस बात को कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है:-
                “जिन लोगो ने अपने दीन के टुकडे टुकडे कर दिए और गिरोह (फिरकों) में बंट गए, (अय नबी) तुमको उनसे कुछ काम नहीं. उनका मामला बस अल्लाह के हवाले है. वही उन्हें बतलायेगा कि वे क्या कुछ करते थे.” (सुर: अल अन्आाम:१५९)

 तो कुरआन कि इस आयत से मालूम हुआ कि अगर हम फिरके बनायेंगे तो अल्लाह तअाला और उसके रसूल(स.अ.व.) से दूर होकर गुमराह हो जायेंगे और गुमराही का मतलब है हमेशा के लिए जहन्नम, फिरकाबंदी कि वजह से हमारे अंदर हक(सच) को तलाश करने का जज्बा(तमन्ना) खत्म हो जाता है और हम अपने इमाम, पीर या आलिम की बातो को बिना कुरआन और हदीस कि दलाइल के हक(सच) मानने लगते है. फिर ना हम कुरआन समझने के लिए तैयार होते है और ना ही हदीस समझकर उस पर अमल करेने के लिए!
              लोग फिरकाबंदी के घरों में अपने आप को बन्द करके अपने इमाम, पीर साहब या आलिम के कौल कि कुंडी लगा लेते है, फिर चाहे आप बाहर से उन्हें कितनी भी कुरआन कि आयत सुनाये या फरमाने रसूल(स.अ.व.) सुनाओ मगर वह उसको मानने के लिए तैयार नहीं होता और अपने बडो के कौल कि कुंडी खोलकर फिरकाबंदी के घर से बाहर निकलना ही नहीं चाहता!

फिरकाबंदी की वजह से हम मुसलमान लोग आपस में एक दूसरे से नफ़रत करने लगते है और फिर शैतान अपनी चल चलकर हमें आपस में लड़ाता है. हालाकि हम मुसलमान एक उम्मत है और अल्लाह तअाला ने हमें एक दीन “इस्लाम” दिया है जो बिलकुल सीधा सादा दीन है जिसे कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है:-

“तुम इब्राहीम के दीन को अपनाओ जो हर एक से अलग होकर एक (अल्लाह तअाला) के हो गए थे और मुशरिको में से ना थे” (सुरह आले इमरान:९५)

और दूसरी जगह अल्लाह तअाला फरमाते है:-

“इब्राहीम न यहूदी थे न नसरानी बल्के सीधे सादे मुसलमान थे और मुशरिक भी न थे.”(सुरह आले इमरान:६७) 

फिरकापरस्ती का हल (उपाय)
फिरकाबंदी का हल बताते हुए अल्लाह तअाला कुरआन में फरमाते है:-
           “एे अहले किताब, आओ एक ऐसी बात कि ओर जो तुममे और हम में एक सामान है. वह यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी और कि इबादत ना करे और ना उसके साथ किसी चीज को शरीक करे और ना हममें से कोई एक दूसरे को अल्लाह के सिवा किसी को रब बनाये. फिर यदि वो इससे मुंह मोड ले तो कह दो गवाह रहो हम तो ‘मुस्लिम’ है.” (सुर: आले इमरान:६४)

दूसरी जगह अल्लाह तअाला फरमाते है:-
                  “सब मिलकर अल्लाह कि रस्सी को मजबूती से पकडो और आपस मे फूंट पैदा न करो” (सुर: आले इमरान:१०३)

अल्लाह तअाला के रसूल(स.अ.व.) ने भी हमें एक रहने को कहा है और उनकी बुनियादी बात भी बतलाते हुए फरमाया है:-
        “मै तुम्हारे दरमियान दो चीजे छोड़े जा रहा हूँ अगर तुम उन पर अमल करोगे तो कभी गुमराह नहीं होंगे, वह दो चीजे है अल्लाह कि किताब (कुरआन) और मेरी सुन्नत यानी मेरा तरीका (हदीस)!
(मोत्ता मालिक:२२५१, रिवायात अबू हुरैरह(रदी.)

अल्लाह तअाला ने हमें सिर्फ दो हुक्म मानने के लिए कहा है, जिसे कुरआन में बताया है कि:-
          “अल्लाह कि इताअत करो और उसके रसूल (स.अ.व.) कि इताअत करो ताकि तुमपर रहम किया जाए.”(सुर: आले इमरान:१३२)

कुरआन कि यह आयत हमारे बिच के गिरोहबंदी के हल का तरीका ब्यान करती है.

फिरकाबपरस्ती का अंजाम!
अल्लाह तअाला के कुरआन कि यह आयतें और रसूल(स.अ.व.) के फरमान के बावजूद अगर हम फिरकापरस्ती पर कायम रहे तो अल्लाह कुरआन में लोगो को आगाह करते हुए फरमाते है:-
                 “उस वक़्त को याद करो जब कि वे लोगो (पीर/इमाम/आलिमो) के पीछे चले थे अपने मुरीदो से अलग हो जायेंगे और अजाब उनके सामने होगा और उनके आपस के सारे नाते टूट जायेंगे. (सुर: अल बकरह:१६६)

याद रखो ! क़्यामत के दिन कोई किसी के काम न आएगा. सिर्फ जिद, वहम् और माहौल कि वजह से हक बात का इन्कार ना करो और तुम खूब जानते हो कि हक बात सिर्फ कुरान और हदीस है!
आज यह माहोल है कि अगर मैं कोई फिरके में सिर्फ इसलिए हूँ कि मैंने अपने बाप-दादा को ये ही करते और कहते देखा है तो जान लो अल्लाह तअाला कुरआन में फरमाते है:-
        “जब उनसे कहा जाता है कि अल्लाह ने जो कुछ उतारा  है उसके मुताबिक चलो, तो कहतें है, नहीं! हम तो उसी के मुताबिक चलेंगे जिस पर हमने बाप-दादा को पाया, क्या इस हाल में भी के उनके बाप-दादा ना-समझ और ना सही रास्ता जानते हो! (सुर: अल बकरह:१७०)

और दूसरी जगह अल्लाह तअाला फरमाते है:-
             “जब उनसे कहा जाता है कि उस चीज कि तरफ आओ जो अल्लाह ने उतारी है (कुरआन) और रसूल (स.अ.व.) कि ओर  तो वह कहते है ‘हमारे लिए वो ही काफी है जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है. क्या यदि उनके बाप दादा कुछ भी ना जानते हो और ना सही रास्ते पर हो तब भी!” (सुर: अल माइदा:१०४)

हमारी दावत:-
उम्मत के हर फिरके को हमारी दावत है कि हम अपने बनाये हुए मजहब को छोडकर अल्लाह के उस दीन कि ओर लौट आए जिस दीन के अहकाम और नियम मुकम्मल है. जिसे कुरआन और हदीस कि शक्ल में महफूज किया गया है और हर फिरका उसे हक जानता है. इसलिए हम अपने आमाल सिर्फ और सिर्फ कुरआन और सुन्नत के मुताबिक बनाये. हर एक फिरका अपना अपना लेबल छोडकर अपने आपको सिर्फ “मुसलमान” कहे और हर एक फिरका अपना अपना बनाया हुआ मजहब छोडकर अल्लाह का दीन जो कि इस्लाम है उसे अपनाए.
            दिन में पांच बार हम अल्लाह से हर नमाज में दुआ करते है कि “हमें सीधे रास्ते पर चला” (सुरह फातिहा:५) तो जब अल्लाह ने सीधा रास्ता दिखाया है उससे हटकर हम क्यों फिरकाबंदी करके अपने आपको गुमराह कर रहे है और सीधे रास्ते से दूर हो रहे है?

अल्लाह कुरआन में फरमाते है:-
           “उस चीज (कुरआन) को मजबूती से पकडे रहो जो तुम्हारी ओर वही कि जाती है, बेशक तुम सीधे रास्ते पर हो.” (सुर: अज जुखरुफ़:४३)

और दूसरी जगह:-
           “बेशक तुम रसूलों में से हो, निहायत सीधे रास्ते पर.” (सुर:यासीन:३-४)

जब अल्लाह तअाला ने अपने रसूल (स.अ.व.) को सीधे रास्ते पर होने कि गवाही दी है तो हमें चाहिए कि हम भी अपने आपको रसूल(स.अ.व.) के हुक्मों और आमालो के मुताबिक चलकर सीधे रास्ते पर रहने कि कोशिश करनी चाहिए. हमारे लिए यही बेहतर है, दुनिया और आखिरत में कामयाब होने के लिए. कुरआन को समझो जिसे अल्लाह ने आसान किया हुआ है! और अल्लाह के रसूल(स.अ.व.) के फरमानो को मानो जो हदीस कि शक्ल में है!  अल्लाह ने हमें दो हाथ दिए और रसूल(स.अ.व.) ने उसी दो हाथों में दो चीजे (कुरआन और हदीस) दी है. अल्लाह ने न हमें तीसरा हाथ दिया और ना ही रसूल(स.अ.व.) ने हमें तीसरी चीज दी है!
•°लौट आओ कुरआन और हदीस कि ओर अगर कामयाब होना चाहते हो|
•°तोड़ दो वो तमाम बंदिशे जो हमें एक दूसरे से अलग करती है|
•°छोड़ दीजिए वो तमाम बाते और अमल जो अल्लाह के कुरआन और रसूल(स.अ.व.) के फरमान के खिलाफ हो|
•°छोड़ दीजिए अपने-अपने आलिमों और मौलवियों कि किताबें और पकड़ लीजिए अल्लाह की किताब (कुरआन)हम इसी बुनियाद पर एक उम्मात बन सकते है और हमारे बिच मुहब्बत कायम हो सकती है!

हम अल्लाह तआला से दुआ करते है कि हमें इस उम्मत के बीच से फिरकापरस्ती खत्म करने कि समझ दे और दीन ए ‘इस्लाम’ पर हमें कायम रखे…. आमीन.

[अहले इल्म हजरात से गुजारिश है कि अगर वो कोई गलती पाएं तो मेरी इस्लाह करें!]

आपका दीनी भाई!
जाहिद राणा

Wednesday, 23 September 2015

कुरआन और धार्मिक स्वतंत्रता

इसमें कोर्इ शक (सन्देह) नही कि कुरआन चाहता हैं एक ईश्वर (अल्लाह) के सिवा किसी अन्य की इबादत न किया जाए। उसे ही खालिक, पालनहार, परवरदिगार, कुदरतवाला, आलिमुलगैयब, रिज्क देने वाला, जरूरतें पूरी करने वाला, सुख ओर दुख देने वाला, मौत और जिन्दगी का मालिक और सारे जहाँ का बादशाह, कयामत (प्रलय) के दिन इन्सानों का हिसाब-किताब लेने वाला स्वीकार किया जाए। उसे निराकार माना जाए और उसका बुत न बनाया जाए। लेकिन कुरआन अपनी इस सही और उचित बात को भी बलपूर्वक और जोर-जबरदस्ती से नही मनवाता बल्कि इसके लिए वह सबूत देता है! अच्छा हुक्म और सोच-विचार करने का।
कुरआन की यह तालीम और हुक्म बिल्कुल नही हैं कि जो इन बातों को कबूल न करे उससे युद्ध किया जाए और उसे मौत के घाट उतार दिया जाए। यह एक बिलकुल ही झूठा आरोप हैं जो कुरआन और इस्लाम पर लगाया जाता है।
कुरआन मे तो जगह-जगह यह बात कही गर्इ हैं कि इस दुनिया मे इन्सान को सोच-विचार एवं काम की आजादी देकर इम्तिहान के लिए भेजा गया हैं और बलपूर्वक किसी विशेष बात को अपनाने पर मजबूर नही किया गया हैं। इस दुनिया (कर्म-क्षेत्र) में वह जो भी नीति अपनाएगा मौत के बाद आने वाले आखिरत के जीवन में उसके अनुसार वह इनाम या सजा पाएगा। ताकत या तलवार के साथ किसी को अपनी बात अपनाने पर मजबूर करने की तालीम और हुक्म अगर कुरआन देता तो फिर इस हालत मे इम्तिहान का वह मकसद ही खत्म हो जाता जिसका जिक्र कुरआन मे बार-बार किया गया हैं।
•कुरआन में अल्लाह तआला फरमाते हैं:-
         ‘‘फिर (ऐ पैगम्बर) हमने तुम्हारी ओर यह ग्रन्थ अवतरित किया जो सत्य लेकर आया हैं और ‘मूल ग्रन्थ’ मे से जो कुछ उसके आगे मौजूद हैं उसकी पुष्टि करने वाला और उसका रक्षक और निगहबान हैं। अत: तुम अल्लाह के भेजे हुए कानून के अनुसार लोगो के मामलों का फैसला करो और जो सत्य तुम्हारे पास आया हैं उससे विमुख होकर उनकी इच्छाओं का अनुसरण न करो। हमने तुम इन्सानों मे से हर एक के लिए एक ग्रन्थ पन्थ और एक कार्य-पद्धति निश्चित की। अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक समुदाय भी बना सकता था, (लेकिन उसने ऐसा नही किया) ताकि उसने जो कुछ तुम लोगों को दिया हैं  उसमें तुम्हारी परीक्षा ले। अत: भलाइयों मे एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने की कोशिश करो। अन्तत: तुम सबकों अल्लाह की ओर पलटना है, फिर वह तुम्हें असल वास्तविकता बता देगा जिसमें तुम विभेद करते रहे हो।’’ (कुरआन: 5/48)

•कुरआन मे एक जगह अल्लाह ने अपने रसूल (सल्ल0) को फरमाया:-
            ‘‘(ऐ पैगम्बर!) ऐसा लगता हैं कि अगर इन लोगो ने इस शिक्षा को ग्रहण नही किया (ईमान न लाए) तो तुम इनके पीछे दुख के मारे अपने प्राण ही दे दोगे। सत्य यह हैं कि जो कुछ सुख-सामग्री भी जमीन पर हैं, उसको हमने जमीन का सौन्दर्य बनाया हैं ताकि लोगो की परीक्षा ले कि उनमें कौन उत्तम कर्म करने वाला हैं।’’ (कुरआन: 26/3)

•कुरआन मे दूसरी जगह पर कहा गया:-
         ‘‘बड़ा बरकत वाला (विभूतिपूर्ण) है वह जिसके हाथ में साम्राज्य है और वह हर चीज़ पर सक्षम है।जिसने मृत्यु और जीवन को पैदा किया ताकि वह तुमको जाँचे कि तुममे से कौन अच्छे कर्म करता है। और वह शक्तिशाली है, क्षमा करने वाला है।’’ (कुरआन 67: 1-2)

इसी तरह की बहुत-सी आयतें कुरआन मे मौजूद हैं, जिनसें इस बात का पता चलता है कि इन्सान को इस दुनिया मे अकल और आमाल (कर्म) की आजादी देकर उसका इम्तिहान लिया जा रहा हैं। इन तालिमात के होते हुए यह मतलब कैसे निकाला जा सकता हैं कि किसी को तलवार या ताकत के जोर से एक ही बात कबूल करने पर मजबूर करने का हुक्म कुरआन देता हैं।

जिन लोगों से जंग करने की बात कुरआन मे कही गर्इ हैं वह उनके गैर-मुस्लिम होने की वजह से नही, बल्कि इस वजह से कही गर्इ। कि वे इस्लाम और उसके मानने वालो (अनुयायियों) पर घोर जुल्म (अत्याचार) करते थें उन्हें खत्म करने के लिए साजिशे करते थे, मुसलमानो पर खुद बढ़-चढ़ कर हमले करते थे, और मुसलमानों को इस्लाम पर अमल करने से रोकते थे!

•मजहब (धर्म) कबूल करने के ताल्लुक से कुरआन इस बात का ऐलान करता हैं:-
      ‘‘दीन (धर्म) के सम्बन्ध मे कोर्इ जबरदस्ती नही।’’(कुरआन, 2 : 256)

•कुरआन मे एक ओर जगह है:
              "(ऐ पैगम्बर) अपने परवरदिगार की ओर से (लोगो के सामने) सत्य पेश कर दो। अब जो चाहे उसे माने और जो चाहे इन्कार करे।’’ (कुरआन, 18:29)

•कुरआन मे एक ओर जगह कहा गया:-
               "और शिर्क (बहुदेववादी) करने वालों पर ध्यान न दो। और यदि अल्लाह चाहता तो ये लोग उसका साझी न ठहराते। और हमने तुमको उनके ऊपर संरक्षक नहीं बनाया है और न तुम उन पर अधिकारी हो’’ (कुरआन, 6:106-107)

•कुरआन मे एक ओर जगह कहा गया:-
            ‘‘तुम उनके उपास्यों को, जिन्हें वे अल्लाह को छोड़कर पुकारते हैं, गालियों न दो ( न उनके लिए अपशब्द कहो)।’’ (कुरआन 6:108)

कुरआन उपदेश दीजिए और समझाइए-बुझाइए क्योकि आपके जिम्में केवल नसीहत देना हैं। आप उनपर दारोगा या हवलदार नही हैं (कि जोर-जबरदस्ती से अपनी बात मनवा लें)।’’ (कुरआन 88:21-22)

•कुरआन में एक ओर जगह पर हैं:-
                ‘‘हमने उसको (मनुष्य को) सत्यमार्ग दिखा दिया हैं। अब चाहे वह (उसपर चलकर) कृतज्ञ बने, चाहे (उसे छोड़कर) अकृतज्ञ।’’ (कुरआन 76:3)

•कुरआन में हैं:-
       ‘‘कहो कि ऐ अवज्ञाकारियो,मैं उनकी उपासना नहीं करुँगा जिनकी उपासना तुम करते हो।और न तुम उसकी उपासना करने वाले हो जिसकी उपासना मैं करता हूँ।और मैं उनकी उपासना करने वाला नहीं जिनकी उपासना तुमने की है।और न तुम उसकी उपासना करने वाले हो जिसकी उपासना मैं करता हूँ।तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन (धर्म), और मेरे लिए मेरा दीन (धर्म)।’’ (कुरआन, 109 : 1-6)

कुरआन की यह सूरा उस समय की हैं जब अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल0) लोगों को एक अल्लाह की ईबादत और बन्दगी की और बुला-बुलाकर थक गए थे और कुछ लोगो ने मानकर नही दिया और अब उनसे कोर्इ उम्मीद भी बाकी नही रही
कि वे एक अल्लाह की ईबादत के लिए तैयार होंगे। इन हालात में नबी करीम सल्ल0 की जुबान से एलान कराया गया और इन्कार करने वालो से कह दिया गया कि अगर तुम अपनी नीति पर अडिग रहना चाहते हो तो ये कुरआनी तालीमात इन्सान की धार्मिक स्वतंत्रता का खुला एलान हैं। जो धर्म और जो किताब यह एलान खुद करती हो उसके बारे मे यह दुष्प्रचार करना कि उसकी यह शिक्षा हैं कि ‘‘ जो उस पर र्इमान न लाए उसे कत्ल कर दिया जाए,’’ कितना बड़ा अत्याचार व अन्याय हैं।
कुरआन और इस्लाम के बारे में इस तरह का गलत और उल्टा प्रचार करने वाली संस्थाओं और उनके हमख्याल लोगो के मन मे कभी यह ख्याल नही आता कि जब इस्लाम और कुरआन की सही तालीम और सही तस्वीर लोगो के सामने आएगी तो लोगो की उनके बारे में क्या राय बनेगी। सारी दुनिया तो उनके समान विचार वाली हैं नही कि लोग आंखे बन्द करके उनकी बातों को सच मान लेगे। यह युग ज्ञान-विज्ञान और शोध और खोजों का युग हैं और दुनिया में बहरहाल ऐसे लोगो की बड़ी तायदाद मौजूद हैं जो जानकारी और शोध के बाद ही किसी के बारे मे कोर्इ राय बनाते हैं।
ऐसे बहुत-से लोगो से हमारी मुलाकाते हुर्इ हैं और होती रहती हैं, जिन्होने इस तरह के दुष्प्रचार से मुतास्सिर होकर इस्लाम और कुरआन का उसके सही हक से अध्ययन किया और इस्लाम की तर्कसंगत, संतुलित और सच पर आधारित समाजसुधार तालिमात से मुतास्सिर हुए बिना न रह सके।