Thursday, 30 July 2015

दास (गुलामों) पर उपकार

अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के आने से पहले संसार भर में दास प्रथा प्रचलित थी। भारत भी इस मामले में किसी से पीछे न था। दास मनुष्य होते हुए भी पशु-समान थे। दासों का न ही अपने उपर कोर्इ अधिकार था, न ही अपनी पत्नी और न अपनी संतान पर। वे पशु के समान ही खरीदे और बेचे जाते थे। पशु के समान ही उनसे काम लिया जाता था, मारा और पीटा जाता था। उनका अपना कुछ न था, स्वामी के दिए हुए स्थान मे रहते थे, स्वामी का दिया हुआ कच्चा-पक्का, रूखा-सूखा भोजन खाते थे। हर तरह का अत्याचार चुप-चाप सहने के लिए मजबूर होते थे।
               भारत हिन्दू धार्मिक देश था। यहॉ धर्मात्मा थे, दानशील थे, साधु, संत और महात्मा भी थे। परन्तु दास इनकी दया और सहानुभूति से वंचित थे। हालात से मजबूर होकर कहना पड़ता हैं कि उस समय धर्म भी दासों के सम्बन्ध मे खामोश था। मनुस्मृति मे भी दासो के विषय मे दया, सहानुभूति के दो शब्द न थे, वेदों तथा उपनिषदों मे भी दासो को इस अवस्था से निकालने के लिए कोर्इ रास्ता न था। दास भी यह मानकर कि वे पैदा ही इसी लिए हुए हैं, अपनी हालत पर संतोष करते हुए लोगों की सेवा में ही अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देते। इस विषय में श्री ज्ञानेन्द्रनाथ श्रीवास्तव दैनिक ‘अमृत प्रभात’ इलाहाबाद 23 दिसम्बर, 1979 के अंक में लिखते हैं-

‘‘रोमन साम्राज्य में गुलामों का व्यापार होता था। इस साम्राज्य के पतन के बाद भी यह बर्बर प्रथा जारी रही। अपने देश के इतिहास का अध्ययन करने वाले अकसर इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि यहॉं भी दास-प्रथा लम्बे समय तक मौजूद रही (आज भी हैं-बॅधुआ मजदूरों, घरेलू नौकरो के रूप में-लेखक)। वे मनुष्य, जो किसी दूसरे की सम्पत्ति थे, जिनका अपना कहने को कुछ नही था, यहां तक कि जिनका अपने शरीर पर भी अधिकार नही था, उन्हे दास कहा जाता था। रोम में रोमन क्लासिकल लॉ और भारत में कौटिल्य, मनु और नारद जैसे व्यवस्थाकारों ने अपने ग्रंथों में दासता-विषयक नियम बनाकर इस प्रथा को मान्यता दी थी। इस दलित वर्ग के विषय में पर्याप्त जानकारी हमें प्राचीन भारतीय वाड्मय से प्राप्त होती हैं। वेदो में दास शब्द अधिकांशत: आर्यो के विरोधियों के लिए व्यवहत हुआ हैं, जिन्हे वे ‘अनास’ (नासा रहित अर्थात् चिपटी नाकवाले), ‘मृधवाक्’ (अस्पष्ट वाणीवाले) और ‘शिश्नदेवा:’ आदि शब्दों से सम्बोधित करते थें। संभवत: आर्यो ने इन्हे युद्ध में परास्त करने के बाद अपना दास बना लिया होगा। दास शब्द का प्रयोग यद्यपि वैदिक साहित्य में बहुत हुआ हैं, पर इससे उनके जीवन और सामाजिक स्तर पर विशेष प्रकाश नही पड़ता। छठी शताब्दी र्इ0 पू0 में बुद्ध की वाणी पालि भाषा में मुखरित हुर्इ। उनके दर्शन को जन-जन तक पहॅुचाने के लिए पालि साहित्य विकसित हुआ। पालि साहित्य और जातक कथाएॅ, जो कि तत्कालीन समाज की जीवित प्रतिबिम्ब हैं, दासों के सुख-दुख की कहानी भी कहती हैं। इन ग्रन्थों से पता चलता है कि दास एक निरीह प्राणी था। जिसे सुख की शायद कोर्इ कल्पना भी न थी। भय, असुरक्षा और वास उसके स्थार्इ भाव थे। त्रिपिटक ग्रन्थों में कहीं भी दास की सुरक्षा के लिए कानूनों का उल्लेख नही मिलता और न ऐसे नियम ही जो कि स्वामी के प्रति असीमित अधिकारों को सीमित कर सके। दास-दासियों की सारी खुशी उनके स्वामी की कृपा पर निर्भर थी। स्वामी द्वारा दास को प्रताड़ना देना बड़ी साधारण बात थी। ऐसे उदाहरणों की कमीं नही जब अकारण ही स्वामी द्वारा दास की हत्या कर दी गर्इ या उसके नाक-कान काट लिए गए और स्वामी को कोर्इ दण्ड नही मिला। ‘विमानवक्ष’ मे एक ऐसा ही उदाहरण मिलता हैं, जिसमें स्वामी ने क्रोध के क्षणिक आवेश मे आकर खेत की चौकीदारी करने वाले अपने दास की हत्या कर दी और उसके कुटुम्ब जन चुपचाप रोते रहे।

दासियों की स्थिति और भी दयनीय थी। यदि वह सुन्दर हुर्इ तो उन्हे स्वामी की वासना का शिकार होना पड़ता था। धम्मपाद मे ऐसी ही एक दासी का उदाहरण हैं। स्वामी के साथ सोने के अपराध में गृह स्वामिनी ने उसके नाक-कान काट लिए।

दास-दासियों को मजदूरी करके, धन कमाकर अपने स्वामी को देना पड़ता था। ऐसा न करने पर उन्हें यातनाएॅं सहनी पड़ती थी। ‘नामसिद्धि’ जातक में धनपाली नामक दासी के साथ ऐसा ही हुआ था, जिसे उसके मालिक काम करके मजदूरी न देने के कारण दरवाजे पर बिठाकर रस्सी से पीट रहे थे।

दासों के प्रति कठोरता उन्हें नियंत्रित करने का साधन मानी गर्इ थी। उन्हे सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। वैधानिक दृष्टि से दास मनुष्य न होकर एक वस्तु था। वह अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नही कर सकता था। उसकी प्रत्येक छोटी-बड़ी वस्तु उसके स्वामी की होती थी और वह स्वामी की चल सम्पत्ति का अंग था। स्वयं सम्पत्ति का अंग होने पर दास के लिए निजी सम्पत्ति की कल्पना करना ही असंभव था। हॉ ‘कट्टहारि जातक’ में कौशल नरेश के पुत्र विद्डम, जिसकी मां दासी कन्या थी और इसी कारण वह अपने अधिकार से वंचित हो रहा था, के लिए उत्तराधिकारी की सिफारिश की गर्इ हैं।
               दासों की कर्इ कोटियां होती थी। यह श्रेणी-निर्धारण बहुत कुछ इस पर निर्भर करता था कि वे किस तरह प्राप्त किए गए हैं। दासी के गर्भ से जन्म लेने वाली संतान भी दास होती थी और उस पर उसी स्वामी का अधिकार होता था। दास-दासी उपहार में दिए जाते थे। जुए में हारे व्यक्ति को भी दास लिया जाता था। युद्ध-बंदी को दास बनाना तो वैदिक समय से ही प्रचलित था। दासों की एक प्रमुख श्रेणी थी-
           " क्रीत दास। जातक कथाओ मे अक्सर ‘सो मुद्राओं’ में खरीदे हुए दासों का उल्लेख है। लगता हैं उस समय दास का यह सामान्य मूल्य था।’’

हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने दास-दासियों का सम्मान ही नही बढ़ाया, बल्कि दास प्रथा को समाप्त भी कर दिया। इस सम्बन्ध मे विख्यात अंग्रेज विद्वान मिस्टर बास्वर्थ अपनी किताब ‘‘मुहम्मद एंड मुहम्मडनिज्म’’ में लिखते है :-:-:-
                ‘‘ अब हम देखना चाहते हैं कि इस्लाम ने दासों के विषय में क्या किया-इसमें संदेह नही कि इस बारे में भी, न केवल उन्नति की ओर प्रगति की गर्इ, बल्कि स्त्रियों के सम्बन्ध में जो कानून बनाए गए उनके मुकाबले में दासों के बारे में ज्यादा तरक्की की गर्इ। निस्संदेह हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने दासता को बिलकुल मिटा नही दिया, क्योकि देश की हालत को देखते हुए ऐसा करना न उचित था और न सम्भव। लेकिन उन्होने गुलामों को आजाद कराने पर लोगो को उभारा और इस संबंध में कानून बनाया गया। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह हैं कि कोर्इ मुक्त गुलाम इसलिए नीच और हीन न समझा जाए कि उसने मेहनत और परिश्रम से एक सत्य और सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत किया हैं। और उनके बारे में जो गुलामी की हालत में हैं, यह हुक्म दिया कि उनके साथ दया और नम्रता का व्यवहार किया जाए। उन्होने अपने हज के अंतिम खुत्बे में, जो अपने अखीर वक्त से कुछ ही दिन पहले मक्का मे दिया था, कहा था:-                 ‘‘मुसलमानों! तुम अपने गुलामों को वैसा ही खाना खिलाओं जैसा तुम खुद खाते हो, और वैसा ही कपड़ा पहनाओं जैसा तुम खुद पहनते हो, क्योकि वे भी खुदा के बन्दे है। उनको कष्ट देना उचित नही,’’ इस्लाम के इस कानून ने तो गुलाम का अर्थ ही बदल दिया।

जो लोग युद्ध मे बन्दी होकर आए हो और अपनी स्वतंत्रता खो बैठे हो। ऐसे बन्दी अगर मुसलमान हो जाते तो उनके सम्बन्ध मे यह हुक्म था कि आजाद कर दिए जाएॅ। लेकिन अगर वे अपने धर्म पर कायम रहते तो भी मुसलमानों को उनके लिए इस्लाम के पैगम्बर का हुक्म यह था कि तुम उन्हे अपना भार्इ समझो। उन्होने फरमाया- ‘‘जो मालिक अपने गुलाम के साथ मेहरबानी करे वह खुदा को पसंद होगा और जो अपने अधिकार को बुरे तौर पर काम में लाए यानी गुलाम को सताएगा तो वह जन्नत में प्रवेश न पाएगा।’’

एक मुसलमान ने हजरत मुहम्मद सल्ल0 से सवाल किया कि मेरा गुलाम जो मुझे नाराज करे तो उसको मुझे कितनी बार माफ करना चाहिए। हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने जवाब दिया, ‘‘एक दिन में सत्तर बार।’’ आपने कैदी औरतों को दासी बनाने से मना किया पत्नी बनाना उचित ठहराया।

लेकिन वह औरत जिससे पहले बिना विवाह संगम हो चुका उसके बारे में यह हुक्म दिया कि वह उसकी संतान से अलग न की जाए, न फिर वह बेची जाए, बल्कि मालिक के मर जाने के बाद वह आजाद समझी जाए’’ जो मुसलमान मालिक अपने दास पर नाराज हो उस पर अनिवार्य हैं कि वह उसको तुरन्त आजाद कर दें। मालिक कितना ही सम्पन्न क्यों न हो अदालत को अनुमति थी कि उसको गुलाम पर दया करने के लिए मजबूर किया जाए। सारी मानव जाति का र्इश्वर की दृष्टि में समान होना एक ऐसा सिद्धान्त था जिस पर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने बार-बार जोर दिया हैं। इस तरह चूॅकि यह सिद्धान्त गुलामी के रिश्ते एवं जातपात के अन्तर को बिलकुल मिटा देता था इसलिए उसने गुलामी की हीनता को भी मिटा दिया’’।

उपर इस्लाम के जिन आदेशों का वर्णन किया हैं उनमें दो हदीस ओर भी शामिल हैं।

1:- हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने फरमाया‘‘गुलामों से ऐसे काम न लिए जाए जो उन्हें थका दें। और यदि उनको ऐसा कठिन काम दिया जाए जो उनको थका दे तो उसमें स्वंय उनकी सहायता की जाए।’’    (सहीह बुखारी)

2:- ‘‘कोर्इ ‘मेरा गुलाम’ और ‘मेरी दासी’ न कहे। तुम सब अल्लाह के बन्दे हो। और तुम्हारी सब औरतें अल्लाह की बन्दी हैं। यूॅ कहना चाहिए कि मेरा बच्चा, मेरी बच्ची। (सहीह मुसलिम)

सारांश यह हैं कि आप "सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम" ने गुलामों और लौंडियों के कष्ट ही को कम या समाप्त नही किया, बल्कि उनको उचित सम्मान दिलाने के लिए उनके सम्बन्ध में ‘गुलाम’ या ‘दासी’ शब्द का प्रयोग ही निषिद्ध ठहरा दिया। दासी (गुलाम औरत) से पैदा होने वाली सन्तान को कानूनन ‘‘आजाद’’ करार दिया। दास-दासियों को आजाद करने व कराने को प्रोत्साहित किया। परिणाम-स्वरूप इस्लामी समाज में आगे चलकर यह शोषित वर्ग विलुप्त हो गया और बड़े-बड़े ज्ञानी, विद्धान व शासक इस वर्ग की नस्ल से पैदा हुए।
-:वमा अलेयना इल्लल बलाग:-

औरतों पर उपकार

हर व्यक्ति का सबसे पवित्र रिश्ता मॉं से होता हैं। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) की एक हदीस के अनुसार पुरूषों पर स्त्रियों को तिगुनी श्रेष्ठता प्राप्त हैं। एक सहाबी रजि• ने आप सल्ल0  से पूछा कि मै सबसे अधिक किसके साथ भलार्इ करू?
आपने फरमाया, ‘मॉ के साथ,
उसने पूछा, ‘फिर किसके साथ?’ आपने फरमाया, ‘मॉ के साथ।’
उसने पूछा, फिर किसके साथ? आपने फरमाया, ‘मॉं के साथ’
उसने चौथी बार पूछा, ‘उसके बाद? आपने फरमाया, ‘ बाप के साथ।’  (तिरमिज़ी)

हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) की इस हदीस से पता चलता है कि स्त्री को पुरूष पर तिगुनी श्रेष्ठता प्राप्त हैं। आपकी एक हदीस हैं, ‘‘मॉं के कदमों तले जन्नत हैं।’’

पुरूष का सबसे निकट सम्बन्ध अपनी पत्नी से होता है। पत्नी पति की जीवन साथी होती हैं इसलिए वह आदर की पात्र होती हैं। लेकिन पुरूषो ने उसको केवल कामवासना का साधन बना लिया। वह आदर भी करता था तो सम्मान भाव से नही, बल्कि भोग-विलास के भाव से।

संसार के हर देश में, सभ्य-असभ्य हर जाति में बहु विवाह का चलन था। पुरूष जितनी स्त्रियॉ चाहता रख लेता, परन्तु न सबका आदर कर सकता, न सबको  सुखी रख सकता। अरब के निवासी दासियों के होते हुए भी आठ-आठ पत्नियां रख लेते, और जिसको जब चाहते तलाक दे देते, झूठा दोष लगाकर महर (विवाह का सुनिश्चित स्त्री धन) भी न देते, मरने वाले पति और पिता के धन एवं जायदाद मे औरत का कोर्इ हिस्सा न था। भारत मे भी बहुविवाह का चलन था। अल्लाह ने पवित्र कुरआन मे बहु विवाह की सीमा निश्चित कर दी।चार पत्नियां तक की तो अनुमति दे दी, परन्तु इन कड़ी शर्तो के साथ कि चारो के साथ समान व्यवहार किया जाए। जो इस आदेश का पूरा-पूरा पालन न कर सके, उसको एक से अधिक पत्नी रखने का अधिकार नही। अल्लाह तआला ने मरने वाले पति और पिता के धन-जायदाद मे स्त्रियों का हिस्सा भी निश्चित कर दिया जो कुरआन मे सविस्तार उल्लिखित हैं और इस्लामी कानून का अनिवार्य अंश हैं। इस्लाम के पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने अपने उपदेश में पत्नियों के साथ अच्छा व्यवहार करने की शिक्षा दी हैं। आपने फरमाया:-

‘‘तुममें अच्छा व्यक्ति वह हैं जो अपनी पत्नी के सम्बन्ध में अच्छा हैं’’

अरब के लोग बेटियों की हत्या कर देते थे। भारत में भी यही प्रथा थी। कुरआन ने लोगो को इस दुष्कर्म से मना किया। आप सल्ल0 ने बेटियों से स्नेह की शिक्षा ही नही दी, बल्कि स्नेह के साथ सम्मान का आदर्श भी उपस्थित किया। बेटियों को पाल-पोसकर विवाह कर दैने का फल जन्नत मे अपने निकट स्थान बताया। स्त्रियों को बहुत सम्मानित किया। माता की सेवा का फल भी जन्नत और बेटी से स्नेह और लालन-पालन का फल भी जन्नत बताया गया। बहन को भी बेटी के बराबर ठहराया गया। पत्नी को दाम्पत्य जीवन, घराने व समाज मे आदरणीय, पवित्र, सुखमय व सुरक्षित स्थान प्रदान किया गया।

अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्ल0 की शिक्षाओं की एक झलक!

[इसलाम का दुष्प्रचार करने वाले जरूर पढें]
*) समस्त संसार को बनाने वाला एक ही मालिक हैं। वह निहायत मेहरबान और रहम करने वाला है। उसी की ईबादत करो और उसी का हुक्म मानो।

*) अल्लाह ने इन्सान पर अनगिनत उपकार किए हैं। धरती और आकाश की सारी शक्तियॉ इन्सानों की सेवा मे लगा दी हैं। वही धरती और आकाश का मालिक हैं, वही तुम्हारा पालनहार हैं।

*) अल्लाह (अपने सच्चे मालिक) को छोड़कर अन्य की पूजा करना सबसे बड़ा जुल्म और अत्याचार है।

*) अल्लाह की नाफरमानी करके तुम उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। फरमाबरदार बनकर रहो, इसमें तुम्हारा अपना भला है।

*) अल्लाह की याद से रूह को सकून मिलता हैं। उसकी इबादत से मन का मैल दूर होता है।

*) अल्लाह की निशानियों (दिन, रात, धरती, आकाश, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु आदि की बनावट) पर विचार करो। इससे अल्लाह पर ईमान मजबूत होगा और भटकने से बच जाओगे।

*) मैं (हजरत मुहम्मद सल्ल0) अल्लाह की ओर से संसार का मार्गदर्शक नियुक्त किया गया हूॅ। मार्गदर्शन का कोर्इ बदला तुमसे नही चाहता। मेरी बातें सुनों और मेरी आज्ञा का पालन करो।
मै कोर्इ निराला और अजनबी पैगम्बर नही हूॅं। मुझसे पहले संसार मे मार्गदर्शन के लिए बहुत-से रसूल आ चुके हैं, अपने धर्म-ग्रन्थों में देख लो या किसी ज्ञानी व्यक्ति से मालूम कर लो।
मैं पहले के पैगम्बर की शिक्षा को पुन: स्थापित करने और कपटाचारियों के बन्धन से मानव को मुक्त कराने आया हू।

*) मैं इसलिए भेजा गया हू कि नैतिकता और उत्तम आचार को अंतिम शिखर तक पहुॅचा दू।
मैं लोगो की कमर पकड़-पकड़कर आग में गिरने से बचा रहा हू, किन्तु लोग हैं कि आग ही की ओर लपक रहे हैं।

*) मैं दुनियावालों के लिए रहमत बनाकर भेजा गया हूॅ। तुम लोगो के लिए आसानियॉ पैदा करो; मुसीबते न पैदा करो। मॉ-बाप की सेवा करो। उनके सामने ऊॅची आवाज से न बोलो। उन्होने तुम पर बड़ा उपकार किया है, अत: तुम उनके आज्ञाकारी बनकर रहों।

*) मॉ-बाप यदि अन्याय का आदेश दे तो न मानों, बाकी बातों में उनकी आज्ञा का पालन करो।

*) सारे मानव एक मालिक के पैदा किए हुए है, एक मॉ-बाप की संतान हैं। उनके बीच रंग-नस्ल जाति, भाषा, क्षेत्रीयता आदि का भेदभाव घोर अन्याय है। सारे लोग आदम की सन्तान है, उनसे प्यार करो घृणा न करो। उन्हे आशावान बनाओं निराश मत करो।

*) मानव में श्रेष्ठ वह हैं जो दूसरों का हमदर्द, पवित्र आचरणवाला और अपने रब का आज्ञाकारी हैं।

*) तुम धरतीवालों पर दया करो, आकाशवाला (अल्लाह ) तुम पर दया करेगा।

*) वह व्यक्ति सबसे अच्छा हैं जो अपने घरवालों और पड़ोसियों के लिए अच्छा हैं।

*) औरतों, गुलामों और यतीमों (अनाथों) पर विशेष रूप से दया करो।

*) जो अपने बेटे और बेटियो के बीच भेदभाव न करे और बेटियों का ठीक से पालन-पोषण करे, वह स्वर्ग में जाएगा।

*) जो बड़ो का आदर और छोटो से प्रेम न करे वह हम में से नहीं।

*) तुम दिनियावी जिन्दगी मे मस्त होकर भूल मत जाओ, तुम सबको अपने किए हुए कर्मो का हिसाब अपने रब को देना हैं। आखिरत (परलोक)की सफलता ही वास्तविक सफलता हैं।

*) आखिरत (परलोक) की यातना बड़ी कठोर हैं। वहॉ कुल-वंश, सगे-सम्बन्धी, धन-दौलत और किसी की सिफारिश कुछ काम आनेवाली नहीं। अल्लाह के हुक्म का पालन और उत्तम आचरण ही  (उसकी यातना से) बचने का एक मात्र साधन हैं। अपने को और अपने घरवालों को नरक की अग्नि से बचाओं।

*) अल्लाह के हुक्म के मुताबिक खर्च करके स्वंय को नरक की अग्नि से बचाओं। तुम्हारे माल में तुम्हारे सम्बन्धियों, गरीबो, अनाथो का भी हक हैं। उनके हक अदा करो। दूसरो का धन अवैध रूप से न खाओं। तिजारत या समझौते के द्वारा वैध रूप से धन प्राप्त करो। चीजों मे मिलावट न करो, नाप-तौल मे कमी न करो। व्यापार में धोखा न दो। जो धोखा देता हैं हम में से नही।

*) बाजार मे भाव बढ़ाने के लिए (गल्ला आदि) चीजों को रोककर (जखीरा करके) मत रखों। ऐसा करने वाला घोर यातना का अधिकारी है।
पैसे को गिन-गिनकर जमा न करो और न फिजूलखर्ची करो, मध्यम मार्ग को अपनाओं।
दूसरों के अपराध क्षमा कर दिया करो। दूसरों के ऐब का प्रचार न करो उसे छिपाओं, तुम्हारा रब तुम्हारे ऐबो पर परदा डाल दैगा। झूठ, चुगलखोरी, झूटे आरोप (बोहतान) से बचो। लोगो को बुरे नाम से न पुकारो।

*) अश्लीलता और निर्लज्जता के करीब भी न जाओ, चाहे वह खुली हो या छिपी।
दिखावे का काम न करो। दान छिपाकर दो। उपकार करके एहसान मत जताओ।
रास्ते से कष्टदायक चीजों (कॉटे, पत्थर आदि) को हटा दिया करो।

*) धरती पर नर्म चाल चलो, गर्व और घमण्ड न करो। जब बोलो अच्छी बात बोलो अन्यथा चुप रहो। अपने वचन और प्रतिज्ञा को पूरा करो।
सत्य और न्याय की गवाही दो, चाहे तुम्हारी अपनी या अपने परिवार-जनों की ही हानि क्यो न हो। अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने वाला अल्लाह का प्यारा होता है।

*) किसी बलवान को पछाड़ देना असल बहादुरी नही, बहादुरी यह है कि आदमी गुस्से पर काबू पाए।

*) मजबूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मजदूरी अदा करो। किसी सेवक से उसकी शक्ति से अधिक काम न लो, उसके आराम का ख्याल रखो। जो खुद खाओं उसे भी खिलाओं और जो खुद पहनो उसे भी पहनाओं। जानवरों पर दया करो, उनकी शक्ति से अधिक उनसे काम न लो।

*) किसी वस्तु का आवश्यकता से अधिक प्रयोग न करो। पानी का दुरूपयोग न करो, चाहे तुम नदी के किनारे ही क्यो न हो। अपने शरीर, वस्त्र और घर को पाक-साफ रखों। जब सोकर उठो तो सबसे पहले अपने दोनो हाथों को धो लो। तुम्हे पता नही कि नींद में हाथ कहॉ-कहॉ गए हैं।

*) युद्ध मे औरतो, बच्चो, बीमारों और निहत्थो पर हाथ न उठाओं। फलवाले पेड़ो को न काटो।
युद्ध के बन्दियों के साथ अच्छा व्यवहार करो, यातनाएॅ न दो। जो कोर्इ बुरार्इ को देखे, तो अपनी ताकत के मुताबिक उसे रोकने की कोशिश करे, यदि रोकने की क्षमता ना हो तो दिल से उसको बुरा समझो।

*) सारे कर्मो का आधार नीयत (इरादा) हैं। गलत इरादे के साथ किए गए अच्छे कर्मो का भी कोर्इ फल अल्लाह के यहॉ नही मिलेगा।

हजरत मुहम्मद सल्ल0 सबके लिए!

हजरत मुहम्मद (सल्ल0) सबके लिए’’ मात्र एक नारा और केवल मुसलमानों का दावा नही हैं, बल्कि एक वास्तविक, व्यावहारिक व ऐतिहासिक तथ्य है। ‘सबके लिए’ का स्पष्ट अर्थ हैं ‘सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सर्वमान्य होना’। सार्वभौमिकता के परिप्रेक्ष्य में, हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के, भारतवासियों का भी पैगम्बर होने की धारणा तकाजा करती हैं कि आप (सल्ल0) के समकालीन भारत पर एक संक्षिप्त दृष्टि अवश्य डाली जाए, और चूकि आप की पैगम्बरी का ध्येय एवं आप (सल्ल0) के र्इशदूतत्व का लक्ष्य मानव-व्यक्तित्व, मानव-समाज के आध्यात्मिक व सांसारिक हर क्षेत्र मे सुधार, परिवर्तन, निखार व क्रान्ति लाना था, इसलिए यह दृष्टि भारतीय समाज के राजनैतिक, सामाजिक व धार्मिक सभी पहलुओं पर डाली जाए।

**राजनैतिक परिस्थिति-
          " हजरत मुहम्मद (सल्ल0) द्वारा अरब प्रायद्वीप में इस्लाम के पुन: अभ्युदय का काल, सातवी शताब्दी र्इसवी का प्रारंभिक काल हैं। भारत, ‘भारतवर्ष’ या ‘हिन्दुस्तान’ नामक एक देश न था, न ही इसका कोर्इ एक शासक। अलग-अलग क्षेत्रों में ‘पल्लव’ और ‘चालुक्य’ आदि वंशो के शासकों-हर्ष वर्धन, महेन्द्र वर्मन और पुलकेशिन का राज्य था। इनमें सत्ता व शासन के लिए बराबर लड़ाइयॉं होती रहती थी। पराजय के पुनर्विजय-प्राप्ति के लिए वाह्य-देशों से सैनिक सहायता भी ली जाती थी। सत्ताधारी वर्ग के धर्म या धर्म-परिवर्तन का व्यापक प्रभाव शासित वर्ग ग्रहण करता था।

**धार्मिक परिस्थिति-
        " उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में बौद्ध धर्म का हास हो रहा था। कश्मीर से मथुरा तक और मध्य-प्रान्त, पूर्वी तथा दक्षिणी प्रान्त में ब्रहम्मणों का प्रभाव बढ़ रहा था। जैन धर्म प्रभावहीन हो चुका था और जैनियों ने ब्राहम्मणों से समझौता करके उनका न केवल राजनैतिक व सांसारिक प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था, बल्कि बड़े-बड़े लोगो का धर्म-परिवर्तन भी कराया जाने लगा था। जैन धर्म के अनुयायी महेन्द्र वर्मन (शासन काल 600-630 र्इ0) को संत अप्पर ने शिव धर्म ग्रहण करा दिया था जो शंकर का पुजारी बना और उसने महाबलिपुरम के प्रसिद्ध मन्दिर समेत कर्इ शिव-मन्दिर बनवाए, और जैन धर्म का बचा-खुचा अस्तित्व भी लगभग समाप्त हो गया।
दूसरी ओर हासोन्मुख बौद्ध धर्म पर ब्राहम्मणवाद का ऐसा प्रबल प्रभाव पड़ा कि बौद्ध धर्म के मूर्तिपूजा-विरोधी अनुयायी, मूर्तिपूजा को अपने धर्म का खास अंग बना बैठे। बौद्ध जहॉ जाते वहां गौतम बुद्ध की मूर्तिपूजा न करने की मूल-शिक्षा के विरूद्ध उनकी मूर्तियों स्थापित करते और उनकी पूजा-अर्चना करने लगते। एक प्रसिद्ध हिन्दू चिन्तक, सी0वी0 वैद्य के अनुसार, ‘‘इस युग में हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनो ही मूर्तिपूजा के समर्थक थे, बल्कि शायद बौद्ध धर्म मूर्तिपूजा में हिन्दू धर्म से भी आगे बढ़ गया था-।’’
             हिन्दू धर्म में वेदो द्वारा स्थापित एकेश्वाद, ऋग्वेद काल के अन्त तक पहुॅंचते-पहुॅचते ‘अनेक-देवतावादी एकेश्वरवाद’ में बदल चुका था। कुछ विद्वानों के अनुसार, वैदिक देवताओं की संख्या 33 तक और कुछ के अनुसार 3339 तक हो गर्इ थी जो पौराणिक काल में बढ़कर 33 करोड़ तक पहुॅच गर्इ थी, देवताओं की मूर्तियों के साथ-साथ पशु, नक्षत्र, नदी आदि भी पूज्य हो गए थें। हर्ष वर्धन के काल में शिवलिंग की पूजा आम हो गर्इ थी और विष्णु के अनेक अवतारो की मूर्तिपूजा प्रचलित हो गर्इ थी।

**सामाजिक परिस्थिति-
         " हर्ष वर्धन के पूर्वजों ने समाज में वर्ण-व्यवस्था की जड़ फिर से मजबूत करके ऊॅंच-नीच श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ और छूतछात आदि को जो बढ़ावा दिया था, वह हर्ष वर्धन काल (606-647र्इ0) में बराबर जारी रहा। इस काल मे भारत की यात्रा करन ेवाला चीनी यात्री फाहयान, लिखता है: शुद्र तो गए-गुजरे हैं ही, लेकिन शुद्रों में चांडाल सबसे अधम समझे जाते थे। वे राजज्ञानुसार, शहर में प्रवेश करते समय लकड़ी से ढोल बजाकर अपने आने की सूचना देते थे, ताकि लोग हट जाए और उनका स्पर्श बचाकर चले।’’ सातवीं सदी के एक अन्य चीनी भारत-यात्री ‘हवेनसांग’ के अनुसार, ‘‘ शुद्रों के पश्चात, पंचम जाति के लोगो-कसाइयों, मछुआरो, जल्लादो और भंगियों के मकानों पर अलग-अलग निशान बने रहते थें और ये लोग नगर के बाहर रहते थे, उच्च वर्ग का कोर्इ आदमी रास्ते में मिल जाता तो ये ऑखें बचाकर बार्इ ओर को चले जाते और जल्दी से अपने घर में घुस जाते थे।’’
          इस काल मे स्त्रियों की दशा अति दयनीय थी। रोमिला थापर के अनुसार, ‘‘.................उत्तर भारत के कर्इ स्थानों पर सती प्रथा जोर पकड़ती जा रही थी तो दखिण भारत में देवदासी प्रथा।................अनेक मंदिरों की देव-दासियां निर्लज्जतापूर्वक शोषित वैश्याएं बन गर्इ और मन्दिर के अधिकारी उनकी आय प्राप्त करने लगे।’’
          " इंसानों को अन्य जीवन-सामग्री की तरह बेचने-खरीदनें और दास या दासी बनाने की प्रथा प्रचलित थी। डा0 रोमिला थापर के अनुसार, ‘‘..................पुरूष और स्त्रियां या तो स्वयं को बेच देते थे या कोर्इ तीसरा व्यक्ति उन्हे बेच देता था, विशेषकर निर्धनता और अकाल की दशा में ऐसे लोग मन्दिर को बेच दिए जाते थे...........।’’

**भारत और अरब के संबंध-
          " हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के काल से बहुत पहले से ही भारत और अरब के बीच व्यावसायिक संबंध कायम थे। प्रसिद्ध विद्धान और अनुसंधानकर्ता सैयद सुलैमान नदवी के शब्दों मे, ‘‘अरब व्यवसायी आज से हजारो वर्ष पूर्व भारत के तटीय क्षेत्रों मे आते-जाते थे, और वहॉ की वस्तुओं को मिस्र और ओम्मान के मार्ग से यूरोप तक पहुॅचाते थे और वहॉ की वस्तुओं को भारत के द्वीपो मे लाते थें। इस प्रकार के व्यावसायिक सामान को चीन और जापान तक ले जाते थें।’’

मार्कोपोलो और वास्को डि गामा के समय तक भारत का व्यवसाय अरबों के हाथ में था। भारत से सन्दल, काफूर, लोग, जायफल, कबाबचीनी, नारियल, सोंठ अदरक, नील, अजवाइन, केला, सुपारी, रूर्इ के कपड़े, सन और बॉंस आदि चीजेंबेचने के लिए अरब ले जार्इ जाती थी।

" हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के काल मे भी यह व्यापार जारी था। भारत के कुछ लोग अरब के पूर्वी तटों और समीपवर्ती इलाकों में रहते थें। अरबो से उनके संबंध अच्छे थे। उनके बीच किसी लड़ार्इ-झगड़े की घटना इतिहास मे नही मिलती। हजरत मुहम्मद (सल्ल0) और आपके साथी हिन्दुस्तान और यहॉ के लोगो के बारे में जानकारी रखते थे, और आप (सल्ल0) के पैगम्बर बनाए जाने के बाद आपके पैगाम से यहॉ के लोग भी अवगत होने लगे थे।

**भारतीय और अरब समाज मे समानताए-
                  " जिस अरब समाज मे हजरत मुहम्मद (सल्ल0) को र्इश्वर ने अपना रसूल बनाया था, उसमें और समकालीन भारतीय समाज मे अनेक समानताएॅं पार्इ जाती थी। यहॉ ऐसी ही कुछ धार्मिक व सामाजिक समानताओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर देने से ‘हजरत मुहम्मद सबके लिए’ की धारणा को व्यावहारिक स्तर पर समझने मे आसानी होगी।

1- धार्मिक समानताए-
         " भारत एक धार्मिक भू-स्थल था। यहॉ के लोगो में एक र्इश्वर के अस्तित्व पर विश्वास था। वे उसे सृष्टि, मनुष्यों व अन्य जीवधारियों का स्रष्टा समझते थे। यही स्थिति अरब प्रायद्वीप मे थी। वहॉ के लोग एक अल्लाह के वजूद के कायल थे। अल्लाह को ही सृष्टि, मानवजाति एवं समस्त जीवों को पैदा करने वाला मानते थे। यहॉ तक कि उनके नामों-उदाहरणत: ‘अब्दुल्लाह’ (अल्लाह का बन्दा) जैसे नाम से भी वे अपने और अल्लाह के बीच मूलभूत संबंध का प्रदर्शन करते थे।

2- अरबवासी अल्लाह के साथ दूसरों को साझीदार बना चुके थे। वे फरिस्तो, जिन्नो और पूर्वजों की मूर्तियों की पूजा करते थे। कभी एकेश्वरवाद के केन्द्र-स्वरूप बनाए गए ‘काबा’ में और उसके आस-पास, उन्होने लगभग 360 मूर्तियॉं स्थापित कर रखी थी और उनकी पूजा करते, उनके नाम पर बलि देते और उन पर चढ़ावे चढ़ावे तथा उनसे सहायता मांगते थें। मूर्तिपूजा की ठीक यही स्थिति और एक-र्इश्वर के साथ अनेका अनेक देवताओं, नक्षत्रों एवं जीवधारी-अजीवधारी वस्तुओं को साझीदार बनाने का चलन भारत मे भी चरम सीमा पर था।

3-   वैदिक धर्म के साथ-साथ भारत मे बौद्ध धर्म और जैन धर्म के माननेवाले भी थे। इसी प्रकार अरब मे ‘बहुदेववादी एकेश्वरवाद’ को मानने वाले ‘मुशरिकों’ के साथ-साथ अहले-किताब अर्थात यहूदी और र्इसार्इ भी रहते थे।

4-  भारत मे तीर्थो, यज्ञो और बलि का प्रचलन था। अरब मे भी हजरत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) द्वारा स्थापित हज, उमरा और कुरबानी के बिगड़े, बिगाड दिए गए हुए रूप प्रचलित थे।

**समाजिक समानताए-
             "स्त्री की दशा अरब मे अच्छी न थी। वह केवल काम-वासना का साधन समझी जाती थी। समाज मे उसका कोर्इ गौरवपूर्ण स्थान न था। बेटियों को किशोरावस्था मे माता-पिता द्वारा मार दिए जाने और जिन्दा दफन कर देने का रिवाज था। भारत मे भी स्त्री का यौन-शोषण होता था, देवदासी प्रथा के रूप में वेश्यावृति का प्रचलन मे भी औरतो का यौन-शोषण होता था,

1- देवदासी प्रथा के रूप मे वेश्यावृति का प्रचलन था। तन्त्र-साधना के अन्तर्गत नारी का यौन अपमान होता था।

2-  समाज, भारत मे उच्च वर्ग और तुच्छ वर्ग मे बंटा हुआ था। शुद्रो की दशा अति दयनीय थी। दासों और दासियों के रूप मे पुरूष, स्त्री खरीदे-बेचे जाते थे। अरब समाज मे गुलामी (slavery) की प्रथा पूरे जोर पर थी। पूरूषो, स्त्रियों को अन्य जीवन-सामग्री की तरह बेचा, खरीदा और काम में लाया जाता था। गुलामों और बांदियों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। समाज मे उनकी हैसियत बिलकुल पशुओं जैसी थी।

""  यह उस पूरे परिस्थिति का संक्षिप्त अवलोकन हैं जिसमें, और जिसे अरब में पूर्णतया बदलकर रख देने मे समर्थ हो जाने वाले हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को अल्लाह ने एक सुधारक व क्रान्तिकारी पैगम्बर बनाकर भेजा था और आप (सल्ल0) केवल 21 वर्षो मे यह क्रान्ति ले आए । मानवता-उद्धार की यही वह प्रक्रिया थी जिसके दर्शन 1400 वष्रीय विश्व-इतिहास मे होते हैं कि संसार के विभिन्न भागों समेत भारत में भी बड़ी जनसंख्या आप (सल्ल0) का पैगाम स्वीकार करके उसे सीने से लगाती रही और सिद्ध करती रही कि हजरत मुहम्मद (सल्ल0) सबके लिए हैं।