Wednesday, 16 March 2016

विज्ञान इंसान का शरीर और धर्म उसकी आत्मा!

विज्ञान के मायने ज्ञान के उस उसूल से है जो पदार्थो में छिपी अंतस शक्ति को खोजता है। वहीं धर्म (मज़हब) का ताल्लुक ज्ञान के उस उसूल से है, जो सोच के अंदर छिपी हुई आखीर ताक़त को खोजता है। धर्म और विज्ञान का कोई विरोध नहीं है। जो गुजर चुका, वह समझ में आ रहा है। पश्चिम यानी पाश्चात्य देशों ने जो संस्कृति दी वह अतिवादी रही। उसकी बुनियाद में विज्ञान तो रहा, लेकिन धर्म का महत्व गिरा है। तमाम धन-ऐश्वर्य और संसाधनों के बावजूद उसने अंतरात्मा की आवाज को खो दिया। आज आवश्यकता है, धर्म और विज्ञान के संतुलन की। विज्ञान सुविधा देता है, धर्म शांति देता है। धर्म और विज्ञान एक दूसरे के परिपूरक हैं। जैसे शरीर और आत्मा का कोई विरोध नहीं, वैसे ही धर्म और विज्ञान का कोई विरोध नहीं है।

विज्ञान मनुष्य का शरीर है और धर्म उसकी आत्मा। जो मनुष्य केवल शरीर के आधार पर जिएगा वह अपनी आत्मा को खो देगा। जो मनुष्य केवल आत्मा के आधार पर जिएगा उसका शरीर खोखला होता जाएगा। भविष्य तभी सुरक्षित रह सकता है, जब धर्म और विज्ञान का मिलन होगा। यह भी स्पष्ट है कि दोनों के संयोग में धर्म केंद्र में होगा, जबकि विज्ञान एक ढांचे  में महदूद होगा। धर्म ज़मीर होगा और विज्ञान उसका साथी। ध्यान रखें कि जैसे शरीर मालिक नहीं हो सकता है, वैसे विज्ञान भी मालिक नहीं हो सकता। अगर विज्ञान के युग में धर्म नहीं होगा, तो विज्ञान मौत का कारण बन जाएगा। विज्ञान बहुत अच्छा होते हुए भी एक इंतेहा है, जो हमेशा खतरनाक है। धर्म उसे संतुलन देकर इंसान को इसके खतरे से बचा सकता है। धार्मिक होना इंसान के मोक्ष (मगफिरत) का मज़बूत रास्ता है। विज्ञान के कई रूप है, जबकि धर्म का सिर्फ एक। नया खोजने की नहीं, उसको पहचानने की ज़रूरत है। आज विज्ञान और धर्म को एक साथ रखकर, भरपूर ज़रूरत इस बात की है कि दुनिया के राष्ट्रनायक, धर्म गुरु, वैज्ञानिक, चिंतक, साहित्यकार, समाजसेवी, कला प्रेमी और भी बहुत ऐसे लोग कुछ रचनात्मक कार्यो का संकल्प लेकर धर्म के रास्ते पर चलें। धर्म के रास्ते पर चलने वाले की कभी हार नहीं होती।

Saturday, 6 February 2016

जिज्या और जिम्मी क्या है?

जिहाद ही तरह जिज़्या को लेकर भी इस्लाम के विरूद्ध बड़ा दुष्प्रचार किया गया हैं और यह गलतफहमी उत्पन्न कर दी गई हैं कि जिज्या का उद्देश्य भी कर-भार द्वारा गैर मुस्लिम को इस्लाम ग्रहण करने पर बाध्य करना हैं। हर प्रकार के इस्लाम-विरोधी प्रचार का स्रोत तो ईसाई सम्प्रदाय हैं, परन्तु अंग्रेजो के शिष्या उनके चबाए ग्रास को चबानेवाले हमारे देश के विद्धानों ने भी जिहाद और जिज्या के प्रति बड़ा द्वेषपूर्ण प्रचार किया हैं। उन्ही विद्वानों में अंग्रेजी सरकार के सेवक तथा सम्मानित मुगल इतिहास के प्रसिद्ध इतिहासकार ‘सर यदुनाथ सरकार’ भी थे। उनकी एक हिन्दी पुस्तक ‘औंरगजेब’ हैं। यद्यपि वह हिन्दी नहीं जानते थें, परन्तु उन्ही की इच्छा के अनुसार उनके एक शिष्य ने उनकी अंग्रेजी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद कराके उनकी स्वीकृति के बाद उन्ही के नाम से प्रकाशित कराई हैं। किसी धर्म के विषय में प्रमाण उसी धर्म की पुस्तके हो सकती है! विरोधियों की लिखी हुई पुस्तकें नही हो सकती, चाहे वह कितने बड़े विद्वान थे। उदाहरणत: वेद-शास्त्र सम्बन्धी पुस्तके काशी, अयोध्या, मथुरा आदि के पंडितों ही की प्रमाण होंगी, न कि इंग्लैण्ड के विद्वानों की। यदुनाथ सरकार ने उक्त पुस्तक में इस्लाम के विषय में जो कुछ लिखा हैं उसका आधार इस्लामी पुस्तके नही हैं, इस्लाम के शत्रु अंग्रेजी की ‘हयूज’ और ‘इनसाइक्लोपीडिया आफ इस्लाम ‘ आदि हैं, जिनका उद्देश्य इस्लाम के विरूद्ध भ्रम, घृणा, तथा द्वेष उत्पन्न करना था। इसलिए आवश्यकता हैं कि संक्षेप मे जिज्या की वास्तविकता भी गैर मुस्लिम भाइयों के सामने पेश कर दी जाए। 
पहले हम यह बता दे कि जिज्या गैर मुस्लिमों ही पर क्यों हैं? 

1-मुसलमानों पर एक धार्मिक अनिवार्य ‘कर’ लागू होता है, जिसको ‘जकात’ कहते हैं। इसकी दर ढाई प्रतिशत सालाना हैं, जो बचते के धन पर देना पड़ता हैं। यदि कोई अरबपति हो तो उसको भी ढाई प्रतिशत के हिसाब से प्रति वर्ष जकात देनी पड़ती हैं और यदि देश पर कोई संकट आ जाए तो इस्लामी शासन मुसलमानों से उनकी आर्थिक अवस्था के अनुसार विशेष धन भी प्राप्त कर सकता हैं। परन्तु गैर मुस्लिम प्रजा से जिज्या के अतिरिक्त एक पैसा नही ले सकता।

2-गैर मुस्लिम प्रजा देश की सुरक्षा के दायित्व से मुक्त होती हैं इसलिए सैनिक खर्च के लिए उससे हल्का-सा देश-सुरक्षा कर लिया जाता हैं, वही जिज्या कहलाता हैं। आवश्यकता पडने पर जो गैर मुस्लिम प्रसन्नतापूर्वक सैनिक सेवा में भाग लेते हैं उनसे जिज्या नही लिया जाता। यदुनाथ सरकार ने इस विषय में जो कुछ लिखा हैं वह मिथ्या (झूट) हैं।

3-इस्लामी राज्य की सब गैर मुस्लिम प्रजा पर जिज्या अनिवार्य नही हैं। इस्लामी राज्य की गैर मुस्लिम प्रजा तीन प्रकार की होती हैं। एक वे गैर मुस्लिम जिन्होने किसी प्रकार की संधि के द्वारा इस्लामी राज्य की अधीनता स्वीकार कर ली हो। उनके साथ इस्लामी शासन संधि की शर्तो के अनुसार व्यवहार करता हैं। यदि संधि मे जिज्या की शर्त न हो तो इस्लामी शासन को उनपर कदापि जिज्या लगाने का अधिकार नही है। दूसरी किस्म उन गैर मुस्लिमों की हैं, जिन्होने इस्लामी राज्य से युद्ध किया हो और युद्ध करते हुए पराजित हो गए हो तथा इस्लामी सेना ने उनके नगर और दुर्ग पर अधिकार प्राप्त कर लिया हो। केवल यही गैर मुस्लिम हैं, जिनके लिए नियम हैं कि वे इस्लाम स्वीकार कर ले तो उनके सब अधिकार इस्लामी समाज के बराबर हो जाते हैं और अपने धर्म पर रहना चाहें तो ‘सुरक्षाकर’ के रूप में उनपर जिज्या लगाया जाता हैं। तीसरे वे गैर मुस्लिम हैं, जो उन दोनो प्रकार के अतिरिक्त किसी और प्रकार से इस्लामी राज्य के नागरिक बन गए हों। उदाहरण स्वरूप पाकिस्तान के गैर मुस्लिम, उन पर किसी प्रकार से भी जिज्या नही लगाया जा सकता। क्योकि वे न युद्ध मे पराजित हुए हैं और न जिज्या स्वीकार करके पाकिस्तान की प्रजा बने हैं। वह मूलत: पाकिस्तान के नागरिक हैं।

इस्लामी परिभाषा में तीनों प्रकार की गैर मुस्लिम जनता ‘जिम्मी’ कहलाती हैं। जिम्मी कोई अपमानजनक शब्द नही हैं। इसका अर्थ हैं वे गैर मुस्लिम जिनके प्राण, धन, धर्म, सम्मान, सुख, शान्ति, सबकी सुरक्षा का इस्लामी शासन जिम्मेदार होता हैं। इतना ही नही व्यावहारिक रूप से गैर मुस्लिमो की हर प्रकार की सुरक्षा का दायित्व इस्लाम शासन पर होता है, परन्तु इस्लाम के अनुसार गैर मुस्लिमों की रक्षा के वास्तविक जिम्मेदार अल्लाह और रसूल होते हैं। ईश्वर दूत हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने फरमाया-

    ‘खबरदार! जो कोई किसी गैर मुस्लिम प्रजा पर अत्याचार करेगा या अधिकार में कमी करेगा अथवा उसपर उसकी शक्ति से अधिक किसी प्रकार का भार डालेगा या उसकी प्रसन्नता के बिना उसकी कोई वस्तु लेगा तो कियामत के दिन उसके विरूद्ध उस गैर मुस्लिम प्रजा की ओर से खुदा के सम्मुख मैं वादी बनूंगा।’’

गैर मुस्लिम भाई गम्भीरतापूर्वक महाईश-दूत हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की इस चेतावनी पर विचार करें जो उन्होने मुसलमानों को दी हैं। सुरक्षा की ऐसी गारन्टी तो हम भारतीय जनता को भी प्राप्त नही हैं। साम्प्रदायिक दंगों में मुसलमानों के साथ क्या होता हैं?

4-जिज्या की दर इस प्रकार हैं-धनवान से धनवान पर चाहे वह लखपति और अरबपति ही क्यों न हो प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 12 रू0, मध्यम वर्ग पर 6 रू0, व्यापारी और नौकरी पेशा वर्ग पर 3रू0 सालाना। जिज्या के प्रति मूल सिद्धान्त यह है कि इतने ही धन के अनुसार जिज्या लिया जाए जो आवश्यकता से अधिक हो। यदि किसी गैर मुस्लिम प्रजा की आय कम हो जाए तो उससे तीन रूपया से भी कम लिया जाएगा, परन्तु आय बढ़ जाने पर जिज्या बढ़ाया नही जा सकता।

5-जिन पर जिज्या लागू होता हैं, उनमें भी स्त्रियां, बालक, पागल, अन्धे, अपाहिज, मन्दिरों और पूजागृहो के सेवक, साधु-समाज, गृहस्थ, जीवन से अलग होकर गुफाओं और मठो में रहने वाले लोग जिज्या से मुक्त होते हैं।

6-जिज्या देने के लिए अधिकारियों के पास जाने का नियम नही हैं। अधिकारियों को स्वंय वसूली के लिए जाना पड़ता हैं। इनको आदेश हैं कि जिज्या की वसूली में नम्रता से काम लें। कठोरता का व्यवहार न करें। उनके वस्त्र इत्यादि आवश्यकता की वस्तुऐं नीलाम न करें।

7-धनहीनों और भिक्षा मांगनेवाले गैर मुस्लिमों का सरकारी कोष में भी अधिकार हैं।

यदुनाथ सरकार की ‘औरंगजेब’ पुस्तक में इन नियमों की कोई चर्चा नही है। यदि जिज्या गैर मुस्लिमों को अपमानित करने के लिए होता तो मन्दिरों के पुजारी, साधु, सन्याशी, मठो और गुफाओं में रहने वाले तथा स्त्रियां, बच्चे, बूढ़े और धनहीन जिज्या से मुक्त न होते।

यह बात तो हम इसी लेख में उपर लिख चुके हैं कि इस्लामी राज्य में गैर मुस्मि प्रजा को प्राण, धन, धर्म, सम्मान सबकी पूरी सुरक्षा प्राप्त होती हैं। यहां हम इतना और बता दें कि इस्लामी विधान मनुष्यों के बनाए हुए विधान के अनुसार नही होता, ईश्वरीय ग्रन्थ कुरआन और महाईश्दूत हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के आदेशों पर आधारित होता हैं। अत: उसकी अवहेलना उसी प्रकार पाप हैं जिस प्रकार दूसरी ईश्वरीय आज्ञाओं तथा महाईशदूत के आदेशों की अवज्ञा पाप है।

वास्तविकता के विरूद्ध कितना ही प्रचार किया जाए वह अपनी वास्तविकता मनवाकर ही रहती है। पश्चिम के विद्वानों ही में ऐसे विद्वान भी हुए जिन्होने दुराग्रह के दुष्प्रचारों का खण्डन किया। सर यदुनाथ सरकार जैसे विद्वानों को अंग्रेजों की राजनीति के अनुसार इस्लाम और मुसलमानों के विरूद्ध दुष्प्रचार करना था, वे ऐसे विद्वानों की पुस्तकों का अध्ययन क्यों करते जिन्होने दुष्प्रचार का खण्डन किया हैं?

Saturday, 30 January 2016

(इल्म कितना ज़रूरी) पर्दे से छनकर आती रोशनी!

इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम एक दुआ मांगा करते थे- "रब्बी ज़िद्नी इल्मा"- यानी ऐ रब, मेरे इल्म में इजाफा कर। मेरे ज्ञान में वृद्धि कर। उनका कहना था कि झूले से लेकर कब्र तक, इल्म की तलाश में अगर आपको अरब क्षेत्र से चीन तक भी जाना पड़े, तो जाना चाहिए। अब हम सोच सकते हैं कि इस्लाम में शिक्षा का क्या स्थान रहा है और शिक्षा हासिल करना कितना अहम और जरूरी है। शिक्षा किसी भी समाज के विकास और उत्थान का आधार होती है, यह सोच तब भी थी और आज भी कायम है। इस्लाम की परम्परा रही है कि व्यक्ति गरीब हो या अमीर या किसी भी धर्म, जाति या वर्ग का क्यों न हो उसे शिक्षा हासिल करने का पूरा अधिकार है। मध्यकाल गवाह है कि इस्लाम के अनुयायियों ने अपना ज्ञान बांटा भी और दुनिया के एक हिस्से के ज्ञान को दूसरे हिस्से तक पहुंचाया भी। उस काल का साहित्य, कला, वास्तुकला, विज्ञान इस नीति के तहत फले-फूले और दुनिया भर में फैले भी। जिस धर्म की बुनियाद में ही शिक्षा फैलाने की बात हो उसके अनुयायी अगर आज शिक्षा हासिल करने से वंचित हो रहे हैं,  तो यह समय की मांग है कि वे जागें , आत्मावलोकन करें और समय के साथ चलते हुए आधुनिक शिक्षा हासिल करने के लिए पूरे उत्साह से आगे आएं। आज शिक्षा के बिना आप अपनी तरक्की और विकास के बारे में सोच भी नहीं सकते यह बात हर मुसलमान को गांठ बांध लेनी चाहिए। शिक्षा से दूर रहने पर ही कोई भी समाज हर प्रकार के विकास के साथ-साथ मानव विकास के मामले में भी पिछड़ जाता है। शिक्षा की कमी के कारण ही कोई समाज आजीविका के हिसाब से पिछड़ता है, जिसका असर उसके रहन-सहन पर पड़ता है। यह अशिक्षा ही है जिसके चलते वह बेरोजगारी, रोजगार में अनियमितता, निम्न आय, आर्थिक संसाधनों की कमी और आखिर में गरीबी जैसी समस्याओं से जूझता रहता है। निश्चित ही इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारतीय मुसलमान भी आज इन्हीं समस्याओं से दो-चार है। हालांकि पिछले दशक के मुकाबले उनकी साक्षरता में हुई वृद्धि एक नई आस जगाती है कि अंधेरा अब छंटने को है, रौशनी अब निकलने को है! लेकिन यह रफ्तार बढ़ानी होगी और गांवों से लेकर शहरों तक यह आस जगानी होगी और पूरी शक्ति के साथ बदलाव लाना होगा और मुसलमानों को खुद आगे कर अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी की शिक्षा सुनिश्चित करनी होगी। सन् 2001 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल आबादी में मुस्लिम आबादी लगभग 13.4 यानी तकरीबन 14 करोड़ है। सन 2001 में जब भारत सरकार ने पहली बार अपने जनसंख्या आंकड़ों में धार्मिक समूहों के आधार पर शिक्षा की स्थिति के विस्तृत आंकड़े प्रस्तुत किए, तो पता चला कि साक्षरता के मामले में मुस्लिम पुरूष और महिलाएं अन्य धर्मों के लोगों से काफी पिछड़े हुए हैं। उन आंकड़ों के अनुसार, केवल 55 प्रतिशत (7 करोड़ 10 लाख) मुस्लिम पुरूष साक्षर हैं, जबकि 65 प्रतिशत (46 करोड़ 10 लाख) गैर-मुस्लिम पुरूष साक्षर हैं। उधर, केवल 41 प्रतिशत (6 करोड़ 70 लाख) मुस्लिम महिलाएं साक्षर हैं, जबकि 46 प्रतिशत (43 करोड़ 30लाख) गैर-मुस्लिम महिलाएं साक्षर हैं। आप गौर से देखेंगे, तो पाएंगे दो समूहों के बीच साक्षरता में कोई जमीन-आसमान का अंतर नहीं है। लेकिन मामला तब बिगड़ जाता है, जब उच्च शिक्षा की बात आती है। नए आंकड़े बताते हैं कि 100 मुसलमानों में से केवल 11 यानी मुस्लिम आबादी का केवल 11 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा के लिए पंजीकृत होता है। दूसरी ओर हिंदुओं में यह 21 प्रतिशत है, तो ईसाइयों में 31 प्रतिशत है। लेकिन मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बहुत ही गंभीर है और उनमें से केवल 6.7 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा के लिए अपना नाम दर्ज करवाती हैं। देश में 70 प्रतिशत मुस्लिम बच्चों का स्कूलों में नाम तो दर्ज करवाया जाता है, लेकिन सेकेंडरी तक जाते-जाते वे केवल 11 प्रतिशत रह जाते हैं। उसके बाद केवल 3.5 प्रतिशत ही ग्रैज्युएशन कर पाते हैं। जब आप किसी नौकरी के लिए न्यूननम आवश्यकता के स्तर तक भी नहीं पहुंच पाते हैं, तो अच्छी नौकरियां मिलने का सवाल ही नहीं उठता। देश के सबसे साक्षर राज्य केरल में भी उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले मुस्लिम छात्रों का प्रतिशत केवल आठ है। मुस्लिमों की कुल आबादी में से 30 प्रतिशत बच्चे स्कूल के लिए नामांकन ही नहीं करवा पाते, जो चिंता का विषय है। चिंता उससे बड़ी यह है कि जिन बच्चों का नामांकन करवाया जाता है, उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो पाती। वे बीच में ही पढ़ाई छोड़कर बहुत ही कम उम्र में रोजगार, स्वरोजगार, मजदूरी, कारीगरी या छोटी-मोटी नौकरी की तलाश में निकल पड़ते हैं। यानी मुख्य समस्या यही है कि मुस्लिम आबादी उच्च शिक्षा के मामले में बहुत ही पीछे है और इसी का असर है कि सरकारी नौकरियों या गुणवत्तापरक और योग्यता अपेक्षित व्यावसायिक क्षेत्रों में वे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में असमर्थ हो जाते हैं और उन्हें नौकरियां नहीं मिलतीं। तभी तो भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों की उपस्थिति उनकी कुल आबादी का केवल 2.5 प्रतिशत रह जाती है। पिछले एक दशक में मुस्लिम समाज में बदलाव और जागरूकता आई है। मुसलमानों के साक्षरता प्रतिशत में वृद्धि भी हुई है और आंकड़े बताते हैं कि कुछ राज्यों और शहरों में इसका असर उनके जीवन स्तर पर भी पड़ा है। महाराष्ट्र के स्कूलों में, 2006 से 2011 के बीच मुसलमान बच्चों के पंजीकरण में 12.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि इससे पहले यह 6 प्रतिशत ही थी। जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों की जनसंख्या में पिछले एक दशक में 5 प्रतिशत की कमी आई है। सीधी-सी बात है यह शिक्षा और जागरूकता के कारण ही संभव हो पाया है किसी भी देश का आर्थिक व नैतिक विकास तभी संभव है, जब उसका प्रत्येक वर्ग हर क्षेत्र में विकास करे। सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक विकास तभी संभव है जब उसका मानव विकास स्तर सुधरे, इसलिए देश में रह रहे हर वर्ग व समूह का विकास सीधे तौर पर देश के विकास पर प्रभाव डालता है। इसलिए यह जरूरी है कि विकास चौतरफा हो और हर क्षेत्र व वर्ग को ध्यान में रखकर हो। भारतीय मुसलमानों को किसी भी अन्य क्षेत्र के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में प्रोत्साहन, सहायता और समर्थन की ज्यादा जरूरत है। एक बार शिक्षा मुसलमानों की जीवन प्रणाली का हिस्सा बन जाए, तो फिर तमाम समस्याएं खुद-ब-खुद फुर्र हो जाएंगी। किसी भी समाज का आर्थिक व सामाजिक विकास तभी संभव है, जब वह शिक्षित हो और वक्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चले। शिक्षा ही विकास के नये दरवाजे खोलती है और नई रौशनी लाती है। दिलो-दिमाग की खिड़कियां खुली होंगी, तो नए और आधुनिक विचारों की नई बयार भी आएगी। विकास भी होगा और जीवन स्तर भी सुधरेगा। इस्लाम भी कहता है कि वक्त के साथ न चलने वाली कौम पिछड़ जाती है, और जिस कौम में शिक्षा यानी इल्म को इतना महत्व दिया गया है, अगर उसके अनुयायी ही इल्म से वंचित रह जाएं, तो यह बहुत ही दुख:द होगा।

(इल्म की दुनिया:- शरई अहकाम कितनी तरह के होते हैं?

अहकाम किसे कहते हैं:- 
अहकाम” लफ़्ज़ “हुक्म” लफ़्ज़ का जमा है, यानि अहकाम के मायने वह सारे अहकाम है जो अल्लाह ने अपने कलाम के ज़रिये इन्सानो को दिये हैं, और जब हम अल्लाह का कलाम कहते हैं तो उसका मतलब सिर्फ कुरान नहीं होता बल्कि उसके मायने कुरान और सुन्नत के होते हैं, और ज़ाहिर है अल्लाह का कलाम हमारे अमल के मुताल्लिक आता है, अमल में हमारा कौल, हमारा फ़ेल सब आता है , यानि क्या हमे करना है क्या हमे नहीं करना है। अहकाम हर उस आदमी के लिए होते हैं जो उसका मुकल्लीफ़ होता है यानि अहकाम की ज़िम्मेदारी हर उस इंसान पर आयद होती है जो उसके काबिल है। असल में इस्लाम एक दीन है जो इन्सानो के सारे गोशे के लिए अहकामात देता है , कभी ऐसा नहीं होता कि किसी मामले के लिए दीन खामोश हो , यानि उस मामले में दीन कोई अहकाम न देता हो । इसी बात को कुरान कहता है कि-
 “हमने इस किताब में कुछ भी नहीं छोड़ा है“( सूरह अल्अनआम आयत 38), 
और यह भी सोचना जायज़ नहीं कि दीन ए इस्लाम में हर चीज़ का हल नहीं है या कोई एक दुक्का मामले ऐसे है जिसमे दीन ने हमे तन्हा छोड़ दिया है , ऐसा मुमकिन नहीं होता क्योंकि अल्लाह खुद कुरान में फरमाता है-
“हमने तुम पर एक किताब नाज़िल की है जिसमे हर चीज़ का हल है “ (सूरह नहल आयत 89)

इसी लिए हमारे लिए ज़रूरी है कि हम यह समझे कि अहकाम कितनी तरह के होते हैं और हमारे अमल जो हम जाने अंजाने में करते हैं वो किस अहकाम के तहत आते हैं  ताकि हम अपने अमल को शरीयत के मुताबिक कर सके ,हमारे लिए यह जानना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि सहीह बुखारी में एक हदीस दर्ज है जिसमे कहा गया है-
 “ जो अमल दीन से नहीं लिया गया वो रद्द कर दिया जाएगा “। 
इसीलिए यह ज़रूरी है कि हम यह जाने कि जो अमल हम कर रहे हैं उसकी दीन में क्या हैसियत है? दीन के बताए हुए तरीके पर हैं भी या नहीं? दीन का इल्म लेना इसीलिए हम पर फर्ज़ है ।

अहकाम कितने तरह के होते हैं-
इस्लाम में अल्लाह ने हमको, हमारे अमल के लिए अहकाम दिये हैं , कुछ हुक्म को ज़ोर देकर कहा कुछ को करने से मना किया ,कुछ अहकाम करने कि इजाज़त दी , इसी बात को समझने के लिए हम यह समझे असल में दीन में अहकाम कितने तरह के होते हैं । इस्लाम में अहकाम पाँच तरह के होते हैं :-

1-फर्ज़ या वाजिब अहकाम – 
फर्ज़ या वाजिब का लफ़्ज़ी मायने होते है “लाज़मी” यानि इसे हम अगर शरई नज़र से देखे तो वो अहकाम जो अल्लाह ने हम पर लाज़िम किए हैं मिसाल के तौर पर पाँच वक़्त कि नमाज़ हम पर लाज़िम है कि हम उसे अदा करें। वाजिब या लाज़िमी अहकाम उन अहकाम को भी कहते हैं जिन अहकामों को करने पर अल्लाह ने सवाब रखा है और उन अहकामों को तर्क करने पर गुनाह रखा है । अब अगर कोई फर्ज़ अहकाम है तो उसे हम अगर अदा करेंगे तो उस पर हमको उसका सवाब मिलेगा और नहीं करेंगे तो गुनाह के हिस्सेदार होंगे।

2-मंदूब - 
मंदूब के लफ़्ज़ी मायने होते हैं कोई चीज़ या कोई किसी चीज़ को करने को कहे या करने कि सलाह दे , लेकिन शरई नज़र में मंदूब उन अहकामों को कहते हैं जो हमको अल्लाह के कलाम ने करने के लिए कहा तो है लेकिन एक सलाह और सुझाव कि हैसियत से कहा है , उसको अल्लाह ने हम पर फर्ज़ करार नहीं किया है यानि अगर हम उन अहकामों को अदा करते हैं तो उस पर हमको सवाब और अज्र मिलेगा लेकिन अगर किसी वजह से हम उन अहकामों को अदा नहीं कर पाते तो उस पर हमको कोई गुनाह नहीं मिलता,मिसाल के तौर पर मुहर्रम के अशुरा के दिन रोज़ा रखना हमारे लिए मंदूब है लेकिन फर्ज़ नहीं है । मंदूब अहकाम के दूसरे नाम सुन्नत भी हैं ।

3-हराम – 
हराम के लफ़ज़ी मायने है जिसको मना किया गया है , शरई नज़र में वो अमल जिनको अल्लाह ने मना फरमा दिया है उसे हम हराम अमल कहते हैं और उन अमल पर आए हुए अहकाम को हम हराम अहकाम कहते हैं , जिन अमल को अल्लाह ने मना फरमा दिया है अब अगर उसे कोई करेगा तो उसे गुनाह मिलेगा और अगर उस हम नहीं करेंगे तो सवाब मिलेगा जैसे कि शराम का पीना हराम है अब शराब पीने पर उसे गुनाह मिलेगा और अगर शराब से बच जाते हैं तो उसके लिए हम सवाब के हामिल होंगे ।

4-मकरूह -
मकरूह के लफ़ज़ी मायने है जिसको नापसंद किया जाये , यानि जिन अमल को अल्लाह ने अपने कलाम के ज़रिये नापसंद फरमा दिया है उन अमल को हम मकरूह अमल कहते हैं, लेकिन उन अमल के किसी तरह हो जाने पर अल्लाह ने कोई सज़ा या गुनाह नहीं रखा है, हाँ अगर उन अमल को हम करने से बच जाते हैं तो उस पर हम सवाब के हामिल हो जाते हैं , मिसाल के तौर पर लेने और देने में बायेँ हाथ का इस्तेअमाल करना ।

5-मुबाह- 
मुबाह अहकाम वो अहकाम हैं जिन अहकाम को करने कि इजाज़त दी है ऐसे अमल जिनको करने या ना करने में सवाब या गुनाह का कोई किरदार नहीं है । मिसाल के तौर पर हम अरहर कि दाल खाएं या मसूर कि दाल खाएं , किसी एक को चुनने में कोई सवाब या गुनाह का कोई किरदार नहीं है ।

हमारे सारे अमल इन्ही पांचों अहकाम के तहत ही आते हैं , लेकिन हमारे लिए यह ज़रूरी है कि यह हम पता करें कि कौन से अमल किस अहकाम के तहत आते हैं ताकि हम उसकी अहमियत समझते हुए उसी तरह अदा कर पाएँ!