इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम एक दुआ मांगा करते थे- "रब्बी ज़िद्नी इल्मा"- यानी ऐ रब, मेरे इल्म में इजाफा कर। मेरे ज्ञान में वृद्धि कर। उनका कहना था कि झूले से लेकर कब्र तक, इल्म की तलाश में अगर आपको अरब क्षेत्र से चीन तक भी जाना पड़े, तो जाना चाहिए। अब हम सोच सकते हैं कि इस्लाम में शिक्षा का क्या स्थान रहा है और शिक्षा हासिल करना कितना अहम और जरूरी है। शिक्षा किसी भी समाज के विकास और उत्थान का आधार होती है, यह सोच तब भी थी और आज भी कायम है। इस्लाम की परम्परा रही है कि व्यक्ति गरीब हो या अमीर या किसी भी धर्म, जाति या वर्ग का क्यों न हो उसे शिक्षा हासिल करने का पूरा अधिकार है। मध्यकाल गवाह है कि इस्लाम के अनुयायियों ने अपना ज्ञान बांटा भी और दुनिया के एक हिस्से के ज्ञान को दूसरे हिस्से तक पहुंचाया भी। उस काल का साहित्य, कला, वास्तुकला, विज्ञान इस नीति के तहत फले-फूले और दुनिया भर में फैले भी। जिस धर्म की बुनियाद में ही शिक्षा फैलाने की बात हो उसके अनुयायी अगर आज शिक्षा हासिल करने से वंचित हो रहे हैं, तो यह समय की मांग है कि वे जागें , आत्मावलोकन करें और समय के साथ चलते हुए आधुनिक शिक्षा हासिल करने के लिए पूरे उत्साह से आगे आएं। आज शिक्षा के बिना आप अपनी तरक्की और विकास के बारे में सोच भी नहीं सकते यह बात हर मुसलमान को गांठ बांध लेनी चाहिए। शिक्षा से दूर रहने पर ही कोई भी समाज हर प्रकार के विकास के साथ-साथ मानव विकास के मामले में भी पिछड़ जाता है। शिक्षा की कमी के कारण ही कोई समाज आजीविका के हिसाब से पिछड़ता है, जिसका असर उसके रहन-सहन पर पड़ता है। यह अशिक्षा ही है जिसके चलते वह बेरोजगारी, रोजगार में अनियमितता, निम्न आय, आर्थिक संसाधनों की कमी और आखिर में गरीबी जैसी समस्याओं से जूझता रहता है। निश्चित ही इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारतीय मुसलमान भी आज इन्हीं समस्याओं से दो-चार है। हालांकि पिछले दशक के मुकाबले उनकी साक्षरता में हुई वृद्धि एक नई आस जगाती है कि अंधेरा अब छंटने को है, रौशनी अब निकलने को है! लेकिन यह रफ्तार बढ़ानी होगी और गांवों से लेकर शहरों तक यह आस जगानी होगी और पूरी शक्ति के साथ बदलाव लाना होगा और मुसलमानों को खुद आगे कर अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी की शिक्षा सुनिश्चित करनी होगी। सन् 2001 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल आबादी में मुस्लिम आबादी लगभग 13.4 यानी तकरीबन 14 करोड़ है। सन 2001 में जब भारत सरकार ने पहली बार अपने जनसंख्या आंकड़ों में धार्मिक समूहों के आधार पर शिक्षा की स्थिति के विस्तृत आंकड़े प्रस्तुत किए, तो पता चला कि साक्षरता के मामले में मुस्लिम पुरूष और महिलाएं अन्य धर्मों के लोगों से काफी पिछड़े हुए हैं। उन आंकड़ों के अनुसार, केवल 55 प्रतिशत (7 करोड़ 10 लाख) मुस्लिम पुरूष साक्षर हैं, जबकि 65 प्रतिशत (46 करोड़ 10 लाख) गैर-मुस्लिम पुरूष साक्षर हैं। उधर, केवल 41 प्रतिशत (6 करोड़ 70 लाख) मुस्लिम महिलाएं साक्षर हैं, जबकि 46 प्रतिशत (43 करोड़ 30लाख) गैर-मुस्लिम महिलाएं साक्षर हैं। आप गौर से देखेंगे, तो पाएंगे दो समूहों के बीच साक्षरता में कोई जमीन-आसमान का अंतर नहीं है। लेकिन मामला तब बिगड़ जाता है, जब उच्च शिक्षा की बात आती है। नए आंकड़े बताते हैं कि 100 मुसलमानों में से केवल 11 यानी मुस्लिम आबादी का केवल 11 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा के लिए पंजीकृत होता है। दूसरी ओर हिंदुओं में यह 21 प्रतिशत है, तो ईसाइयों में 31 प्रतिशत है। लेकिन मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बहुत ही गंभीर है और उनमें से केवल 6.7 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा के लिए अपना नाम दर्ज करवाती हैं। देश में 70 प्रतिशत मुस्लिम बच्चों का स्कूलों में नाम तो दर्ज करवाया जाता है, लेकिन सेकेंडरी तक जाते-जाते वे केवल 11 प्रतिशत रह जाते हैं। उसके बाद केवल 3.5 प्रतिशत ही ग्रैज्युएशन कर पाते हैं। जब आप किसी नौकरी के लिए न्यूननम आवश्यकता के स्तर तक भी नहीं पहुंच पाते हैं, तो अच्छी नौकरियां मिलने का सवाल ही नहीं उठता। देश के सबसे साक्षर राज्य केरल में भी उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले मुस्लिम छात्रों का प्रतिशत केवल आठ है। मुस्लिमों की कुल आबादी में से 30 प्रतिशत बच्चे स्कूल के लिए नामांकन ही नहीं करवा पाते, जो चिंता का विषय है। चिंता उससे बड़ी यह है कि जिन बच्चों का नामांकन करवाया जाता है, उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो पाती। वे बीच में ही पढ़ाई छोड़कर बहुत ही कम उम्र में रोजगार, स्वरोजगार, मजदूरी, कारीगरी या छोटी-मोटी नौकरी की तलाश में निकल पड़ते हैं। यानी मुख्य समस्या यही है कि मुस्लिम आबादी उच्च शिक्षा के मामले में बहुत ही पीछे है और इसी का असर है कि सरकारी नौकरियों या गुणवत्तापरक और योग्यता अपेक्षित व्यावसायिक क्षेत्रों में वे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में असमर्थ हो जाते हैं और उन्हें नौकरियां नहीं मिलतीं। तभी तो भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों की उपस्थिति उनकी कुल आबादी का केवल 2.5 प्रतिशत रह जाती है। पिछले एक दशक में मुस्लिम समाज में बदलाव और जागरूकता आई है। मुसलमानों के साक्षरता प्रतिशत में वृद्धि भी हुई है और आंकड़े बताते हैं कि कुछ राज्यों और शहरों में इसका असर उनके जीवन स्तर पर भी पड़ा है। महाराष्ट्र के स्कूलों में, 2006 से 2011 के बीच मुसलमान बच्चों के पंजीकरण में 12.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि इससे पहले यह 6 प्रतिशत ही थी। जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों की जनसंख्या में पिछले एक दशक में 5 प्रतिशत की कमी आई है। सीधी-सी बात है यह शिक्षा और जागरूकता के कारण ही संभव हो पाया है किसी भी देश का आर्थिक व नैतिक विकास तभी संभव है, जब उसका प्रत्येक वर्ग हर क्षेत्र में विकास करे। सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक विकास तभी संभव है जब उसका मानव विकास स्तर सुधरे, इसलिए देश में रह रहे हर वर्ग व समूह का विकास सीधे तौर पर देश के विकास पर प्रभाव डालता है। इसलिए यह जरूरी है कि विकास चौतरफा हो और हर क्षेत्र व वर्ग को ध्यान में रखकर हो। भारतीय मुसलमानों को किसी भी अन्य क्षेत्र के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में प्रोत्साहन, सहायता और समर्थन की ज्यादा जरूरत है। एक बार शिक्षा मुसलमानों की जीवन प्रणाली का हिस्सा बन जाए, तो फिर तमाम समस्याएं खुद-ब-खुद फुर्र हो जाएंगी। किसी भी समाज का आर्थिक व सामाजिक विकास तभी संभव है, जब वह शिक्षित हो और वक्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चले। शिक्षा ही विकास के नये दरवाजे खोलती है और नई रौशनी लाती है। दिलो-दिमाग की खिड़कियां खुली होंगी, तो नए और आधुनिक विचारों की नई बयार भी आएगी। विकास भी होगा और जीवन स्तर भी सुधरेगा। इस्लाम भी कहता है कि वक्त के साथ न चलने वाली कौम पिछड़ जाती है, और जिस कौम में शिक्षा यानी इल्म को इतना महत्व दिया गया है, अगर उसके अनुयायी ही इल्म से वंचित रह जाएं, तो यह बहुत ही दुख:द होगा।
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