بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ
अल्लाह तआला के नाम से शुरू करता हूँ जो बहुत मेहरबान और रहम करने वाला है। सब तारीफ़ें सारे जहानों के पालने वाले के लिए हैं, इतनी तारीफ़ें जो उसकी नेअमतों के बराबर हों और दुरूदो सलाम हो उसके रसूल हज़रत मुहम्मद ﷺ पर। दुनिया और आख़िरत की भलाई हो उन लोगों के लिए जो अपनी ज़िंदगी को हज़रत मुहम्मद ﷺ और आपकी आल व असहाब की सुन्नतों से सँवारते हैं।
इस्लामी भाईयों व बहनों अल्लाह तआला के फ़ज़लो करम से हम मुसलमान हैं लेकिन क्या हमें यह मालूम है कि एक मुसलमान होने के नाते हमारी क्या ज़िम्मेदारियाँ हैं? अल्लाह हमसे क्या चाहता है? अल्लामा इक़बाल कहते हैं।
#तुम_तो_सैयद_भी_हो_मिर्ज़ा_भी_हो_और_अफ़ग़ान_भी_हो।
#यूँ_तो_सब_कुछ_हो_बताओ_कि_मुसलमान_भी_हो।
यह शेर आजकल के माहौल के मुताबिक़ बिल्कुल सही है। हम अपने आपको मुसलमान तो कहते हैं और यह बताने में बहुत फ़ख़्र (गर्व) महसूस करते हैं कि मैं सैयद हूँ, मैं पठान हूँ, मैं शेख़ हूँ वग़ैरा-2 लेकिन इस्लाम की रुह हमारे अन्दर से ख़त्म होती जा रही है। आज हमारे अन्दर तरह-तरह की बुराईयाँ और ऐब पैदा होते जा रहे हैं। हमारे किरदार खोखले होते जा रहे हैं। हम झूठ, चोरी, धोखेबाज़ी, शराबनोशी, नशाख़ोरी, बेहयाई जैसी बुराईयों की दलदल में फँसते जा रहे हैं।
ज़रा ग़ौर से सोचिए कि अल्लाह तआला के हम पर कितने अहसान हैं।
सबसे पहला अहसान तो यह कि उसने हमें इंसान बनाया और अपनी सारी मख़लूक़ में सबसे बेहतर बनाया और अशरफ़ुल मख़लूक़ात कह कर पुकारा।दूसरा इससे भी बड़ा अहसान यह कि हमें एक ख़ुदा को मानने वाला और उसी की इबादत करने वाला बनाया।तीसरा सबसे बढ़कर अहसान और करम यह है कि अपने सबसे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद ﷺ का उम्मती बनाया और सबसे बेहतरीन उम्मत क़रार दिया यानि वह उम्मत जिसमें शामिल होने की अंबिया ने भी दुआएं कीं।
इन नेअमतों के लिए हम उस रब का जितना भी शुक्र अदा करें कम है। हमें यह कभी नही भूलना चाहिए कि हमें एक दिन मरना है, क़ब्र में जाना है। जहाँ हमारे साथ कोई भी नही जाएगा। ये सब चीज़ें जिन से हम बहुत ज़्यादा मुहब्बत करते हैं जैसे माँ, बाप, औलाद, बीवी, रिश्तेदार, दोस्त, दौलत, इज़्ज़त, शोहरत, हुस्न, ताक़त सब यहीं रह जाएँगे। वहाँ हमारे साथ कोई जाएगा तो सिर्फ़ हमारे आमाल (कर्म)। आमाल अच्छे हुए तो क़ब्र में हमारा साथ देंगे, वहाँ की तकलीफ़, परेशानी और वहशत से हमें छुटकारा दिलाएँगे और अगर बुरे हुए तो न सिर्फ़ तकलीफ़ और परेशानी को बढ़ाएँगे बल्कि साँप बिच्छू बनकर सताएंगे।
क़यामत के बाद हमें हश्र के मैदान में इकट्ठा किया जाएगा जहाँ की गर्मी और वहशत का कोई बयान नहीं किया जा सकता। वहाँ सब लोग एक दूसरे को पहचानेंगे तो ज़रूर मगर कोई किसी की बात तक नहीं सुनेगा यहाँ तक कि अंबिया और रसूल भी किसी की मदद नहीं करेंगे। सबको अपनी - अपनी पड़ी होगी। उस वक़्त सिर्फ़ हमारे प्यारे नबी मुहम्मद ﷺ लोगों की सिफ़ारिश के लिए आगे आएंगे और हिसाबो किताब का सिलसिला शुरू होगा। वहाँ भी हमारी रिहाई आमाल की वजह से ही होगी जिनके आमाल बेहतर हुए और अल्लाह का फ़ज़लो करम भी हो गया तो उन्हें जन्नत में भेज दिया जाएगा लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होंगे कि जिनको उनके बुरे आमाल की वजह से सज़ाएँ सुनाई जाएंगी, अल्लाह तआला हमें उससे महफ़ूज़ रखे। आप ख़ुद ही सोचिए दुनिया की आग से हमारी एक उंगली भी जल जाए तो बर्दाश्त नहीं कर पाते तो फिर दोज़ख़ की आग को कैसे बर्दाश्त करेंगे, बस हमें यही कोशिश करते रहना चाहिए कि हमारे आमाल बेहतर रहें और अल्लाह के ग़ज़ब से बचे रहें। लिहाज़ा अब हमें यह जानना चाहिए कि वह कौन से काम हैं जिन से उसका ग़ज़ब नाज़िल होता है और कौन से कामों से फ़ज़लो करम, यानि हमें दीन की जानकारी हासिल करना चाहिए जिससे हमारी दुनिया और आख़िरत बेहतर हो।
*इल्म-ए-दीन और उसकी ज़रूरत:-
दीन-ए-इस्लाम का रास्ता इल्म (Knowledge) की वादियों से होकर गुज़रता है। किसी भी मज़हब में इल्म की इतनी अहमियत नहीं बताई गई जितनी इस्लाम में। क़ुरआने पाक में लगभग 700 जगह पर इल्म के बारे में कुछ न कुछ ज़िक्र है।
सबसे ख़ास बात तो यह है कि क़ुरआने पाक का जो सबसे पहला लफ़्ज़ नाज़िल हुआ वो "इक़रा" था जिसका मतलब है "पढ़िए"। अल्लाह तआला क़ुरआने पाक में फ़रमाता है-
قُلْ ہَلْ یَسْتَوِی الَّذِیۡنَ یَعْلَمُوۡنَ وَ الَّذِیۡنَ لَا یَعْلَمُوۡنَ
(आप कहिए कि इल्म वाले और वह लोग जो इल्म नहीं रखते कहीं बराबर होते हैं।)
(सूरह अज़ ज़ुमरआयत 9)
क़ुरआने पाक में ही एक और जगह फ़रमाया गया है-
یَرْفَعِ اللّٰہُ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا مِنۡکُمْ ۙ وَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الْعِلْمَ دَرَجٰتٍ
(अल्लाह तआला तुम में से ईमान वालों के और उनके जिन को इल्म अता हुआ दर्जे बुलन्द (ऊँचे) करेगा)
(सूरह अलमुजादिला आयत 11)
क़ुरआने पाक की इन आयात से इल्म की अहमियत का अच्छी तरह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। बहुत सी अहादीस भी इल्म की अहमियत के बारे में हैं।
"जो इल्म हासिल करने के लिए सफ़र करे अल्लाह तआला उसे जन्नत के रास्ते पर चलाता है।
(मुस्लिम शरीफ़)
"जिस शख़्स को इस हालत में मौत आए कि वो इल्म को ज़िन्दा रखने के लिए इल्म हासिल कर रहा था तो जन्नत में उसके और नबियों के बीच सिर्फ़ एक दर्जे का फ़र्क़ होगा।
(दारमी)
"इल्म हासिल करना हर मुसलमान मर्द और औरत पर फ़र्ज़ है।
(इब्ने माजाह)
इन अहादीस की रौशनी में हम कह सकते हैं कि इस्लाम में इल्म का दर्जा बहुत ऊँचा है यहाँ तक कि उसे हर मुसलमान के लिए ज़रूरी क़रार दिया गया है।
*इल्म की अहमियत के बारे में कुछ क़ौल:-
हज़रत अली रज़ि0 फ़रमाते हैं कि इल्म माल से बेहतर है क्योंकि इल्म तेरी हिफ़ाज़त करता है और तू माल की
।हज़रत मआज़ बिन जबल रज़ि0 फ़रमाते हैं कि इल्म नूर (रौशनी) है, इससे अंधेरा दूर होता है। इल्म ही से अल्लाह की इताअत (हुक्म मानना) और इबादत का हक़ अदा होता है। इस से ही हराम और हलाल का सही पता लगता है। ख़ुश क़िस्मत लोगों के दिल ही इल्म को क़ुबूल करते हैं, बदक़िस्मत इससे महरूम रहते हैं।
इमाम ग़िज़ाली रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि इल्म की वजह से ही इंसान जानवरों से बेहतर होता है। यह वह नूर है जिसकी रौशनी में हर चीज़ की हक़ीक़त को पहचाना जा सकता है।
इल्म के बारे में इतना जान लेने बाद अब हमारे लिए यह जानना ज़रूरी है कि वह कौन सा इल्म है जो ईमान वालों के दर्जे बुलन्द करता है और जिसे हासिल करना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है।
हज़रत मुहम्मद ﷺ फ़रमाते हैं कि- अल्लाह जिसके साथ भलाई चाहता है उसे दीन की समझ दे देता है और हिदायत दे देता है।
(बुख़ारी, मुस्लिम)
इस हदीसे पाक से यह साबित होता है कि वह दीन ही का इल्म है जिसकी वजह से अल्लाह तआला मुसलमान को भलाई अता करता है लेकिन यहाँ पर यह बात भी क़ाबिले ग़ौर है कि दीन का इल्म सिर्फ़ नमाज़, रोज़ा या और इबादतों का ही इल्म नहीं है बल्कि इसमें वह मामलात भी शामिल हैं जो एक मुसलमान को दुनिया में रह कर करने हैं क्योंकि क़ुरआन के मुताबिक़ दुनिया आख़िरत की खेती है, लिहाज़ा हमें इल्म से यह भी सीखना ज़रूरी है कि दुनिया के कौन से काम करना जाइज़ हैं और उनके करने का सही तरीक़ा क्या है।
*इल्म हासिल करने का अस्ल मक़सद:-
अल्लाह तआला को पहचानना, उसकी बड़ाई और अज़मत को अपने दिलो दिमाग़ में अच्छी तरह बसाना।ईमान के लिए ज़रूरी सभी अक़ाइद का जानना।दुनिया व आख़िरत के मामलात की जानकारी हासिल करना।बुरी आदतों से बचाना और अच्छे अख़लाक़ का रास्ता दिखाना है।
इसका फ़ायदा हमें सिर्फ़ इस दुनिया में ही नहीं बल्कि आख़िरत में भी मिलता है।
हज़रत मुहम्मद ﷺ फ़रमाते हैं कि- जब इब्ने आदम (इंसान) मर जाता है तो उसके अमल का रिश्ता कट जाता है मगर तीन चीज़ों से अलग नहीं होता, एक उस इल्म से जिस से दूसरों को फ़ायदा हो, दूसरा सदक़ए जारिया से, तीसरा नेक औलाद से जो उसके लिए ख़ैर की दुआ करे।
(मुस्लिम शरीफ़़)
लेकिन आजकल इल्म-ए-दीन सीखने का रुझान बिल्कुल ख़त्म हो गया है, हम सोचते हैं कि इल्म-ए-दीन हासिल करना तो सिर्फ़ उनके लिए ज़रूरी है जो मौलवी या मुफ़्ती बनना चाहते हैं, हम तो बस नमाज़ और थोड़ा बहुत क़ुरआने पाक सीख लें वही काफ़ी है जबकि आप ﷺ का तो फ़रमान है कि- जो तू जाकर इल्म का कोई बाब (Lesson) सीखे, ये सौ रकअत नमाज़ (नफ़िल) पढ़ने से बेहतर है।
(इब्ने माजाह)
यह बात भी ध्यान में रखनी ज़रूरी है कि आख़िरत में हिसाबो किताब के वक़्त दुनिया में की हुई किसी ग़लती का कोई बहाना क़ुबूल नहीं किया जाएगा। मिसाल के तौर पर अगर कोई शख़्स हैज़ (मासिक धर्म) की हालत में अपनी बीवी को तलाक़ दे और उसे यह न मालूम हो कि यह हराम है, या कोई ताजिर (Businessman) उस तरीक़े पर या किसी ऐसी चीज़ की तिजारत करे जो इस्लाम में हराम है, या कोई मुलाज़िम (Employee) अपना फ़र्ज़ (Duty) सही तरह से अंजाम न दे और अपनी कमाई को हराम बना ले और फिर आख़िरत में बहाना करे तो उसका कोई बहाना क़ुबूल नहीं किया जाएगा बल्कि उससे कहा जाएगा कि तुम्हें पहले ही बता दिया था कि इल्म हासिल करना फ़र्ज़ है। क्या यह मुमकिन है कि तुम्हें तैरना नहीं आता हो और नदी में छलांग लगाकर यह उम्मीद करो कि बच जाओगे। लिहाज़ा अगर हम आख़िरत की भलाई चाहते हैं और अल्लाह के ग़ज़ब से बचे रहना चाहते हैं तो इल्म-ए-दीन हासिल करके उसकी रौशनी में अपने सारे दुनियावी कामों को अंजाम दें।
#वमा_अलैयना_इल्लल_बलाग्
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