Saturday, 30 January 2016

(इल्म कितना ज़रूरी) पर्दे से छनकर आती रोशनी!

इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम एक दुआ मांगा करते थे- "रब्बी ज़िद्नी इल्मा"- यानी ऐ रब, मेरे इल्म में इजाफा कर। मेरे ज्ञान में वृद्धि कर। उनका कहना था कि झूले से लेकर कब्र तक, इल्म की तलाश में अगर आपको अरब क्षेत्र से चीन तक भी जाना पड़े, तो जाना चाहिए। अब हम सोच सकते हैं कि इस्लाम में शिक्षा का क्या स्थान रहा है और शिक्षा हासिल करना कितना अहम और जरूरी है। शिक्षा किसी भी समाज के विकास और उत्थान का आधार होती है, यह सोच तब भी थी और आज भी कायम है। इस्लाम की परम्परा रही है कि व्यक्ति गरीब हो या अमीर या किसी भी धर्म, जाति या वर्ग का क्यों न हो उसे शिक्षा हासिल करने का पूरा अधिकार है। मध्यकाल गवाह है कि इस्लाम के अनुयायियों ने अपना ज्ञान बांटा भी और दुनिया के एक हिस्से के ज्ञान को दूसरे हिस्से तक पहुंचाया भी। उस काल का साहित्य, कला, वास्तुकला, विज्ञान इस नीति के तहत फले-फूले और दुनिया भर में फैले भी। जिस धर्म की बुनियाद में ही शिक्षा फैलाने की बात हो उसके अनुयायी अगर आज शिक्षा हासिल करने से वंचित हो रहे हैं,  तो यह समय की मांग है कि वे जागें , आत्मावलोकन करें और समय के साथ चलते हुए आधुनिक शिक्षा हासिल करने के लिए पूरे उत्साह से आगे आएं। आज शिक्षा के बिना आप अपनी तरक्की और विकास के बारे में सोच भी नहीं सकते यह बात हर मुसलमान को गांठ बांध लेनी चाहिए। शिक्षा से दूर रहने पर ही कोई भी समाज हर प्रकार के विकास के साथ-साथ मानव विकास के मामले में भी पिछड़ जाता है। शिक्षा की कमी के कारण ही कोई समाज आजीविका के हिसाब से पिछड़ता है, जिसका असर उसके रहन-सहन पर पड़ता है। यह अशिक्षा ही है जिसके चलते वह बेरोजगारी, रोजगार में अनियमितता, निम्न आय, आर्थिक संसाधनों की कमी और आखिर में गरीबी जैसी समस्याओं से जूझता रहता है। निश्चित ही इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारतीय मुसलमान भी आज इन्हीं समस्याओं से दो-चार है। हालांकि पिछले दशक के मुकाबले उनकी साक्षरता में हुई वृद्धि एक नई आस जगाती है कि अंधेरा अब छंटने को है, रौशनी अब निकलने को है! लेकिन यह रफ्तार बढ़ानी होगी और गांवों से लेकर शहरों तक यह आस जगानी होगी और पूरी शक्ति के साथ बदलाव लाना होगा और मुसलमानों को खुद आगे कर अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी की शिक्षा सुनिश्चित करनी होगी। सन् 2001 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल आबादी में मुस्लिम आबादी लगभग 13.4 यानी तकरीबन 14 करोड़ है। सन 2001 में जब भारत सरकार ने पहली बार अपने जनसंख्या आंकड़ों में धार्मिक समूहों के आधार पर शिक्षा की स्थिति के विस्तृत आंकड़े प्रस्तुत किए, तो पता चला कि साक्षरता के मामले में मुस्लिम पुरूष और महिलाएं अन्य धर्मों के लोगों से काफी पिछड़े हुए हैं। उन आंकड़ों के अनुसार, केवल 55 प्रतिशत (7 करोड़ 10 लाख) मुस्लिम पुरूष साक्षर हैं, जबकि 65 प्रतिशत (46 करोड़ 10 लाख) गैर-मुस्लिम पुरूष साक्षर हैं। उधर, केवल 41 प्रतिशत (6 करोड़ 70 लाख) मुस्लिम महिलाएं साक्षर हैं, जबकि 46 प्रतिशत (43 करोड़ 30लाख) गैर-मुस्लिम महिलाएं साक्षर हैं। आप गौर से देखेंगे, तो पाएंगे दो समूहों के बीच साक्षरता में कोई जमीन-आसमान का अंतर नहीं है। लेकिन मामला तब बिगड़ जाता है, जब उच्च शिक्षा की बात आती है। नए आंकड़े बताते हैं कि 100 मुसलमानों में से केवल 11 यानी मुस्लिम आबादी का केवल 11 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा के लिए पंजीकृत होता है। दूसरी ओर हिंदुओं में यह 21 प्रतिशत है, तो ईसाइयों में 31 प्रतिशत है। लेकिन मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बहुत ही गंभीर है और उनमें से केवल 6.7 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा के लिए अपना नाम दर्ज करवाती हैं। देश में 70 प्रतिशत मुस्लिम बच्चों का स्कूलों में नाम तो दर्ज करवाया जाता है, लेकिन सेकेंडरी तक जाते-जाते वे केवल 11 प्रतिशत रह जाते हैं। उसके बाद केवल 3.5 प्रतिशत ही ग्रैज्युएशन कर पाते हैं। जब आप किसी नौकरी के लिए न्यूननम आवश्यकता के स्तर तक भी नहीं पहुंच पाते हैं, तो अच्छी नौकरियां मिलने का सवाल ही नहीं उठता। देश के सबसे साक्षर राज्य केरल में भी उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले मुस्लिम छात्रों का प्रतिशत केवल आठ है। मुस्लिमों की कुल आबादी में से 30 प्रतिशत बच्चे स्कूल के लिए नामांकन ही नहीं करवा पाते, जो चिंता का विषय है। चिंता उससे बड़ी यह है कि जिन बच्चों का नामांकन करवाया जाता है, उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो पाती। वे बीच में ही पढ़ाई छोड़कर बहुत ही कम उम्र में रोजगार, स्वरोजगार, मजदूरी, कारीगरी या छोटी-मोटी नौकरी की तलाश में निकल पड़ते हैं। यानी मुख्य समस्या यही है कि मुस्लिम आबादी उच्च शिक्षा के मामले में बहुत ही पीछे है और इसी का असर है कि सरकारी नौकरियों या गुणवत्तापरक और योग्यता अपेक्षित व्यावसायिक क्षेत्रों में वे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में असमर्थ हो जाते हैं और उन्हें नौकरियां नहीं मिलतीं। तभी तो भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों की उपस्थिति उनकी कुल आबादी का केवल 2.5 प्रतिशत रह जाती है। पिछले एक दशक में मुस्लिम समाज में बदलाव और जागरूकता आई है। मुसलमानों के साक्षरता प्रतिशत में वृद्धि भी हुई है और आंकड़े बताते हैं कि कुछ राज्यों और शहरों में इसका असर उनके जीवन स्तर पर भी पड़ा है। महाराष्ट्र के स्कूलों में, 2006 से 2011 के बीच मुसलमान बच्चों के पंजीकरण में 12.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि इससे पहले यह 6 प्रतिशत ही थी। जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों की जनसंख्या में पिछले एक दशक में 5 प्रतिशत की कमी आई है। सीधी-सी बात है यह शिक्षा और जागरूकता के कारण ही संभव हो पाया है किसी भी देश का आर्थिक व नैतिक विकास तभी संभव है, जब उसका प्रत्येक वर्ग हर क्षेत्र में विकास करे। सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक विकास तभी संभव है जब उसका मानव विकास स्तर सुधरे, इसलिए देश में रह रहे हर वर्ग व समूह का विकास सीधे तौर पर देश के विकास पर प्रभाव डालता है। इसलिए यह जरूरी है कि विकास चौतरफा हो और हर क्षेत्र व वर्ग को ध्यान में रखकर हो। भारतीय मुसलमानों को किसी भी अन्य क्षेत्र के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में प्रोत्साहन, सहायता और समर्थन की ज्यादा जरूरत है। एक बार शिक्षा मुसलमानों की जीवन प्रणाली का हिस्सा बन जाए, तो फिर तमाम समस्याएं खुद-ब-खुद फुर्र हो जाएंगी। किसी भी समाज का आर्थिक व सामाजिक विकास तभी संभव है, जब वह शिक्षित हो और वक्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चले। शिक्षा ही विकास के नये दरवाजे खोलती है और नई रौशनी लाती है। दिलो-दिमाग की खिड़कियां खुली होंगी, तो नए और आधुनिक विचारों की नई बयार भी आएगी। विकास भी होगा और जीवन स्तर भी सुधरेगा। इस्लाम भी कहता है कि वक्त के साथ न चलने वाली कौम पिछड़ जाती है, और जिस कौम में शिक्षा यानी इल्म को इतना महत्व दिया गया है, अगर उसके अनुयायी ही इल्म से वंचित रह जाएं, तो यह बहुत ही दुख:द होगा।

(इल्म की दुनिया:- शरई अहकाम कितनी तरह के होते हैं?

अहकाम किसे कहते हैं:- 
अहकाम” लफ़्ज़ “हुक्म” लफ़्ज़ का जमा है, यानि अहकाम के मायने वह सारे अहकाम है जो अल्लाह ने अपने कलाम के ज़रिये इन्सानो को दिये हैं, और जब हम अल्लाह का कलाम कहते हैं तो उसका मतलब सिर्फ कुरान नहीं होता बल्कि उसके मायने कुरान और सुन्नत के होते हैं, और ज़ाहिर है अल्लाह का कलाम हमारे अमल के मुताल्लिक आता है, अमल में हमारा कौल, हमारा फ़ेल सब आता है , यानि क्या हमे करना है क्या हमे नहीं करना है। अहकाम हर उस आदमी के लिए होते हैं जो उसका मुकल्लीफ़ होता है यानि अहकाम की ज़िम्मेदारी हर उस इंसान पर आयद होती है जो उसके काबिल है। असल में इस्लाम एक दीन है जो इन्सानो के सारे गोशे के लिए अहकामात देता है , कभी ऐसा नहीं होता कि किसी मामले के लिए दीन खामोश हो , यानि उस मामले में दीन कोई अहकाम न देता हो । इसी बात को कुरान कहता है कि-
 “हमने इस किताब में कुछ भी नहीं छोड़ा है“( सूरह अल्अनआम आयत 38), 
और यह भी सोचना जायज़ नहीं कि दीन ए इस्लाम में हर चीज़ का हल नहीं है या कोई एक दुक्का मामले ऐसे है जिसमे दीन ने हमे तन्हा छोड़ दिया है , ऐसा मुमकिन नहीं होता क्योंकि अल्लाह खुद कुरान में फरमाता है-
“हमने तुम पर एक किताब नाज़िल की है जिसमे हर चीज़ का हल है “ (सूरह नहल आयत 89)

इसी लिए हमारे लिए ज़रूरी है कि हम यह समझे कि अहकाम कितनी तरह के होते हैं और हमारे अमल जो हम जाने अंजाने में करते हैं वो किस अहकाम के तहत आते हैं  ताकि हम अपने अमल को शरीयत के मुताबिक कर सके ,हमारे लिए यह जानना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि सहीह बुखारी में एक हदीस दर्ज है जिसमे कहा गया है-
 “ जो अमल दीन से नहीं लिया गया वो रद्द कर दिया जाएगा “। 
इसीलिए यह ज़रूरी है कि हम यह जाने कि जो अमल हम कर रहे हैं उसकी दीन में क्या हैसियत है? दीन के बताए हुए तरीके पर हैं भी या नहीं? दीन का इल्म लेना इसीलिए हम पर फर्ज़ है ।

अहकाम कितने तरह के होते हैं-
इस्लाम में अल्लाह ने हमको, हमारे अमल के लिए अहकाम दिये हैं , कुछ हुक्म को ज़ोर देकर कहा कुछ को करने से मना किया ,कुछ अहकाम करने कि इजाज़त दी , इसी बात को समझने के लिए हम यह समझे असल में दीन में अहकाम कितने तरह के होते हैं । इस्लाम में अहकाम पाँच तरह के होते हैं :-

1-फर्ज़ या वाजिब अहकाम – 
फर्ज़ या वाजिब का लफ़्ज़ी मायने होते है “लाज़मी” यानि इसे हम अगर शरई नज़र से देखे तो वो अहकाम जो अल्लाह ने हम पर लाज़िम किए हैं मिसाल के तौर पर पाँच वक़्त कि नमाज़ हम पर लाज़िम है कि हम उसे अदा करें। वाजिब या लाज़िमी अहकाम उन अहकाम को भी कहते हैं जिन अहकामों को करने पर अल्लाह ने सवाब रखा है और उन अहकामों को तर्क करने पर गुनाह रखा है । अब अगर कोई फर्ज़ अहकाम है तो उसे हम अगर अदा करेंगे तो उस पर हमको उसका सवाब मिलेगा और नहीं करेंगे तो गुनाह के हिस्सेदार होंगे।

2-मंदूब - 
मंदूब के लफ़्ज़ी मायने होते हैं कोई चीज़ या कोई किसी चीज़ को करने को कहे या करने कि सलाह दे , लेकिन शरई नज़र में मंदूब उन अहकामों को कहते हैं जो हमको अल्लाह के कलाम ने करने के लिए कहा तो है लेकिन एक सलाह और सुझाव कि हैसियत से कहा है , उसको अल्लाह ने हम पर फर्ज़ करार नहीं किया है यानि अगर हम उन अहकामों को अदा करते हैं तो उस पर हमको सवाब और अज्र मिलेगा लेकिन अगर किसी वजह से हम उन अहकामों को अदा नहीं कर पाते तो उस पर हमको कोई गुनाह नहीं मिलता,मिसाल के तौर पर मुहर्रम के अशुरा के दिन रोज़ा रखना हमारे लिए मंदूब है लेकिन फर्ज़ नहीं है । मंदूब अहकाम के दूसरे नाम सुन्नत भी हैं ।

3-हराम – 
हराम के लफ़ज़ी मायने है जिसको मना किया गया है , शरई नज़र में वो अमल जिनको अल्लाह ने मना फरमा दिया है उसे हम हराम अमल कहते हैं और उन अमल पर आए हुए अहकाम को हम हराम अहकाम कहते हैं , जिन अमल को अल्लाह ने मना फरमा दिया है अब अगर उसे कोई करेगा तो उसे गुनाह मिलेगा और अगर उस हम नहीं करेंगे तो सवाब मिलेगा जैसे कि शराम का पीना हराम है अब शराब पीने पर उसे गुनाह मिलेगा और अगर शराब से बच जाते हैं तो उसके लिए हम सवाब के हामिल होंगे ।

4-मकरूह -
मकरूह के लफ़ज़ी मायने है जिसको नापसंद किया जाये , यानि जिन अमल को अल्लाह ने अपने कलाम के ज़रिये नापसंद फरमा दिया है उन अमल को हम मकरूह अमल कहते हैं, लेकिन उन अमल के किसी तरह हो जाने पर अल्लाह ने कोई सज़ा या गुनाह नहीं रखा है, हाँ अगर उन अमल को हम करने से बच जाते हैं तो उस पर हम सवाब के हामिल हो जाते हैं , मिसाल के तौर पर लेने और देने में बायेँ हाथ का इस्तेअमाल करना ।

5-मुबाह- 
मुबाह अहकाम वो अहकाम हैं जिन अहकाम को करने कि इजाज़त दी है ऐसे अमल जिनको करने या ना करने में सवाब या गुनाह का कोई किरदार नहीं है । मिसाल के तौर पर हम अरहर कि दाल खाएं या मसूर कि दाल खाएं , किसी एक को चुनने में कोई सवाब या गुनाह का कोई किरदार नहीं है ।

हमारे सारे अमल इन्ही पांचों अहकाम के तहत ही आते हैं , लेकिन हमारे लिए यह ज़रूरी है कि यह हम पता करें कि कौन से अमल किस अहकाम के तहत आते हैं ताकि हम उसकी अहमियत समझते हुए उसी तरह अदा कर पाएँ!

इल्म-ए-दीन!

بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ

अल्लाह तआला के नाम से शुरू करता हूँ जो बहुत मेहरबान और रहम करने वाला है। सब तारीफ़ें सारे जहानों के पालने वाले के लिए हैं, इतनी तारीफ़ें जो उसकी नेअमतों के बराबर हों और दुरूदो सलाम हो उसके रसूल हज़रत मुहम्मद ﷺ पर। दुनिया और आख़िरत की भलाई हो उन लोगों के लिए जो अपनी ज़िंदगी को हज़रत मुहम्मद ﷺ और आपकी आल व असहाब की सुन्नतों से सँवारते हैं।

इस्लामी भाईयों व बहनों अल्लाह तआला के फ़ज़लो करम से हम मुसलमान हैं लेकिन क्या हमें यह मालूम है कि एक मुसलमान होने के नाते हमारी क्या ज़िम्मेदारियाँ हैं? अल्लाह हमसे क्या चाहता है? अल्लामा इक़बाल कहते हैं।

#तुम_तो_सैयद_भी_हो_मिर्ज़ा_भी_हो_और_अफ़ग़ान_भी_हो।
#यूँ_तो_सब_कुछ_हो_बताओ_कि_मुसलमान_भी_हो।

यह शेर आजकल के माहौल के मुताबिक़ बिल्कुल सही है। हम अपने आपको मुसलमान तो कहते हैं और यह बताने में बहुत फ़ख़्र (गर्व) महसूस करते हैं कि मैं सैयद हूँ, मैं पठान हूँ, मैं शेख़ हूँ वग़ैरा-2 लेकिन इस्लाम की रुह हमारे अन्दर से ख़त्म होती जा रही है। आज हमारे अन्दर तरह-तरह की बुराईयाँ और ऐब पैदा होते जा रहे हैं। हमारे किरदार खोखले होते जा रहे हैं। हम झूठ, चोरी, धोखेबाज़ी, शराबनोशी, नशाख़ोरी, बेहयाई जैसी बुराईयों की दलदल में फँसते जा रहे हैं।

ज़रा ग़ौर से सोचिए कि अल्लाह तआला के हम पर कितने अहसान हैं।
सबसे पहला अहसान तो यह कि उसने हमें इंसान बनाया और अपनी सारी मख़लूक़ में सबसे बेहतर बनाया और अशरफ़ुल मख़लूक़ात कह कर पुकारा।दूसरा इससे भी बड़ा अहसान यह कि हमें एक ख़ुदा को मानने वाला और उसी की इबादत करने वाला बनाया।तीसरा सबसे बढ़कर अहसान और करम यह है कि अपने सबसे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद ﷺ का उम्मती बनाया और सबसे बेहतरीन उम्मत क़रार दिया यानि वह उम्मत जिसमें शामिल होने की अंबिया ने भी दुआएं कीं।

इन नेअमतों के लिए हम उस रब का जितना भी शुक्र अदा करें कम है। हमें यह कभी नही भूलना चाहिए कि हमें एक दिन मरना है, क़ब्र में जाना है। जहाँ हमारे साथ कोई भी नही जाएगा। ये सब चीज़ें जिन से हम बहुत ज़्यादा मुहब्बत करते हैं जैसे माँ, बाप, औलाद, बीवी, रिश्तेदार, दोस्त, दौलत, इज़्ज़त, शोहरत, हुस्न, ताक़त सब यहीं रह जाएँगे। वहाँ हमारे साथ कोई जाएगा तो सिर्फ़ हमारे आमाल (कर्म)। आमाल अच्छे हुए तो क़ब्र में हमारा साथ देंगे, वहाँ की तकलीफ़, परेशानी और वहशत से हमें छुटकारा दिलाएँगे और अगर बुरे हुए तो न सिर्फ़ तकलीफ़ और परेशानी को बढ़ाएँगे बल्कि साँप बिच्छू बनकर सताएंगे।

क़यामत के बाद हमें हश्र के मैदान में इकट्ठा किया जाएगा जहाँ की गर्मी और वहशत का कोई बयान नहीं किया जा सकता। वहाँ सब लोग एक दूसरे को पहचानेंगे तो ज़रूर मगर कोई किसी की बात तक नहीं सुनेगा यहाँ तक कि अंबिया और रसूल भी किसी की मदद नहीं करेंगे। सबको अपनी - अपनी पड़ी होगी। उस वक़्त सिर्फ़ हमारे प्यारे नबी मुहम्मद ﷺ लोगों की सिफ़ारिश के लिए आगे आएंगे और हिसाबो किताब का सिलसिला शुरू होगा। वहाँ भी हमारी रिहाई आमाल की वजह से ही होगी जिनके आमाल बेहतर हुए और अल्लाह का फ़ज़लो करम भी हो गया तो उन्हें जन्नत में भेज दिया जाएगा लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होंगे कि जिनको उनके बुरे आमाल की वजह से सज़ाएँ सुनाई जाएंगी, अल्लाह तआला हमें उससे महफ़ूज़ रखे। आप ख़ुद ही सोचिए दुनिया की आग से हमारी एक उंगली भी जल जाए तो बर्दाश्त नहीं कर पाते तो फिर दोज़ख़ की आग को कैसे बर्दाश्त करेंगे, बस हमें यही कोशिश करते रहना चाहिए कि हमारे आमाल बेहतर रहें और अल्लाह के ग़ज़ब से बचे रहें। लिहाज़ा अब हमें यह जानना चाहिए कि वह कौन से काम हैं जिन से उसका ग़ज़ब नाज़िल होता है और कौन से कामों से फ़ज़लो करम, यानि हमें दीन की जानकारी हासिल करना चाहिए जिससे हमारी दुनिया और आख़िरत बेहतर हो।

*इल्म-ए-दीन और उसकी ज़रूरत:-
दीन-ए-इस्लाम का रास्ता इल्म (Knowledge) की वादियों से होकर गुज़रता है। किसी भी मज़हब में इल्म की इतनी अहमियत नहीं बताई गई जितनी इस्लाम में। क़ुरआने पाक में लगभग 700 जगह पर इल्म के बारे में कुछ न कुछ ज़िक्र है।

सबसे ख़ास बात तो यह है कि क़ुरआने पाक का जो सबसे पहला लफ़्ज़ नाज़िल  हुआ वो "इक़रा" था जिसका मतलब है "पढ़िए"। अल्लाह तआला क़ुरआने पाक में फ़रमाता है-

قُلْ ہَلْ یَسْتَوِی الَّذِیۡنَ یَعْلَمُوۡنَ وَ الَّذِیۡنَ لَا یَعْلَمُوۡنَ
(आप कहिए कि इल्म वाले और वह लोग जो इल्म नहीं रखते कहीं बराबर होते हैं।)
(सूरह अज़ ज़ुमरआयत 9)

क़ुरआने पाक में ही एक और जगह फ़रमाया गया है-
یَرْفَعِ اللّٰہُ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا مِنۡکُمْ ۙ وَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الْعِلْمَ دَرَجٰتٍ
(अल्लाह तआला तुम में से ईमान वालों के और उनके जिन को इल्म अता हुआ दर्जे बुलन्द (ऊँचे) करेगा)
(सूरह अलमुजादिला आयत 11)

क़ुरआने पाक की इन आयात से इल्म की अहमियत का अच्छी तरह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। बहुत सी अहादीस भी इल्म की अहमियत के बारे में हैं।

"जो इल्म हासिल करने के लिए सफ़र करे अल्लाह तआला उसे जन्नत के रास्ते पर चलाता है।
(मुस्लिम शरीफ़)

"जिस शख़्स को इस हालत में मौत आए कि वो इल्म को ज़िन्दा रखने के लिए इल्म हासिल कर रहा था तो जन्नत में उसके और नबियों के बीच सिर्फ़ एक दर्जे का फ़र्क़ होगा।
(दारमी)

"इल्म हासिल करना हर मुसलमान मर्द और औरत पर फ़र्ज़ है।
(इब्ने माजाह)

इन अहादीस की रौशनी में हम कह सकते हैं कि इस्लाम में इल्म का दर्जा बहुत ऊँचा है यहाँ तक कि उसे हर मुसलमान के लिए ज़रूरी क़रार दिया गया है।

*इल्म की अहमियत के बारे में कुछ क़ौल:-
हज़रत अली रज़ि0 फ़रमाते हैं कि इल्म माल से बेहतर है क्योंकि इल्म तेरी हिफ़ाज़त करता है और तू माल की
।हज़रत मआज़ बिन जबल रज़ि0 फ़रमाते हैं कि इल्म नूर (रौशनी) है, इससे अंधेरा दूर होता है। इल्म ही से अल्लाह की इताअत (हुक्म मानना) और इबादत का हक़ अदा होता है। इस से ही हराम और हलाल का सही पता लगता है। ख़ुश क़िस्मत लोगों के दिल ही इल्म को क़ुबूल करते हैं, बदक़िस्मत इससे महरूम रहते हैं।
इमाम ग़िज़ाली रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि इल्म की वजह से ही इंसान जानवरों से बेहतर होता है। यह वह नूर है जिसकी रौशनी में हर चीज़ की हक़ीक़त को पहचाना जा सकता है।

इल्म के बारे में इतना जान लेने बाद अब हमारे लिए यह जानना ज़रूरी है कि वह कौन सा इल्म है जो ईमान वालों के दर्जे बुलन्द करता है और जिसे हासिल करना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है।

हज़रत मुहम्मद ﷺ फ़रमाते हैं कि- अल्लाह जिसके साथ भलाई चाहता है उसे दीन की समझ दे देता है और हिदायत दे देता है।
(बुख़ारी, मुस्लिम)

इस हदीसे पाक से यह साबित होता है कि वह दीन ही का इल्म है जिसकी वजह से अल्लाह तआला मुसलमान को भलाई अता करता है लेकिन यहाँ पर यह बात भी क़ाबिले ग़ौर है कि दीन का इल्म सिर्फ़ नमाज़, रोज़ा या और इबादतों का ही इल्म नहीं है बल्कि इसमें वह मामलात भी शामिल हैं जो एक मुसलमान को दुनिया में रह कर करने हैं क्योंकि क़ुरआन के मुताबिक़ दुनिया आख़िरत की खेती है, लिहाज़ा हमें इल्म से यह भी सीखना ज़रूरी है कि दुनिया के कौन से काम करना जाइज़ हैं और उनके करने का सही तरीक़ा क्या है।

*इल्म हासिल करने का अस्ल मक़सद:-
अल्लाह तआला को पहचानना, उसकी बड़ाई और अज़मत को अपने दिलो दिमाग़ में अच्छी तरह बसाना।ईमान के लिए ज़रूरी सभी अक़ाइद का जानना।दुनिया व आख़िरत के मामलात की जानकारी हासिल करना।बुरी आदतों से बचाना और अच्छे अख़लाक़ का रास्ता दिखाना है।

इसका फ़ायदा हमें सिर्फ़ इस दुनिया में ही नहीं बल्कि आख़िरत में भी मिलता है।

हज़रत मुहम्मद ﷺ फ़रमाते हैं कि- जब इब्ने आदम (इंसान) मर जाता है तो उसके अमल का रिश्ता कट जाता है मगर तीन चीज़ों से अलग नहीं होता, एक उस इल्म से जिस से दूसरों को फ़ायदा हो, दूसरा सदक़ए जारिया से, तीसरा नेक औलाद से जो उसके लिए ख़ैर की दुआ करे।
(मुस्लिम शरीफ़़)

लेकिन आजकल इल्म-ए-दीन सीखने का रुझान बिल्कुल ख़त्म हो गया है, हम सोचते हैं कि इल्म-ए-दीन हासिल करना तो सिर्फ़ उनके लिए ज़रूरी है जो मौलवी या मुफ़्ती बनना चाहते हैं, हम तो बस नमाज़ और थोड़ा बहुत क़ुरआने पाक सीख लें वही काफ़ी है जबकि आप ﷺ का तो फ़रमान है कि- जो तू जाकर इल्म का कोई बाब (Lesson) सीखे, ये सौ रकअत नमाज़ (नफ़िल) पढ़ने से बेहतर है।
(इब्ने माजाह)

यह बात भी ध्यान में रखनी ज़रूरी है कि आख़िरत में हिसाबो किताब के वक़्त दुनिया में की हुई किसी ग़लती का कोई बहाना क़ुबूल नहीं किया जाएगा। मिसाल के तौर पर अगर कोई शख़्स हैज़ (मासिक धर्म) की हालत में अपनी बीवी को तलाक़ दे और उसे यह न मालूम हो कि यह हराम है, या कोई ताजिर (Businessman) उस तरीक़े पर या किसी ऐसी चीज़ की तिजारत करे जो इस्लाम में हराम है, या कोई मुलाज़िम (Employee) अपना फ़र्ज़ (Duty) सही तरह से अंजाम न दे और अपनी कमाई को हराम बना ले और फिर आख़िरत में बहाना करे तो उसका कोई बहाना क़ुबूल नहीं किया जाएगा बल्कि उससे कहा जाएगा कि तुम्हें पहले ही बता दिया था कि इल्म हासिल करना फ़र्ज़ है। क्या यह मुमकिन है कि तुम्हें तैरना नहीं आता हो और नदी में छलांग लगाकर यह उम्मीद करो कि बच जाओगे। लिहाज़ा अगर हम आख़िरत की भलाई चाहते हैं और अल्लाह के ग़ज़ब से बचे रहना चाहते हैं तो इल्म-ए-दीन हासिल करके उसकी रौशनी में अपने सारे दुनियावी कामों को अंजाम दें।

#वमा_अलैयना_इल्लल_बलाग्