Saturday, 3 October 2015

हमारा मजहब और हम नदी के दो किनारे!

हम और हमारा मजहब नदी के दो किनारे क्यों ? हकीकत है यह की आज कोई भी मुल्क हो  सभी जगह मजहब इस्लाम कुछ और शिक्षा देता हैं और उसके मानने वाले कुछ और करते नजर आते हैं. और शायद इसी वजह  से समाज मैं  मनकी शांति और जीवन का सुख  नहीं है?
आज एक ओर बड़ी बड़ी दावतों में अमीर लोग खाना शान-ओ-शौकत दिखाने के लिए ,ज़रा सा खा के बाकी फैकने के लिए छोड़ दिया करता है  वही दूसरी और ग़रीब दाने दाने को तरसता रहता है.

क्या हम कभी सोंचते हैं की यह दाना उस भूखे ग़रीब के लिए कितना कीमती है? एक ओर अमीर के पास १०-१० घर  हैं और रहता केवल एक घर मैं है. दूसरी और ग़रीब लू धुप, वर्षा, आंधी मैं एक छत के लिए तरसता है. क्या जब हम अपने वातानुकूलित घर मैं आराम से सोते हैं,तो क्या सोंचते हैं कभी उस ग़रीब के बारे मैं जो सर्द रात मैं, और बारिश मैं कांप के रात गुज़ार देता है और दिन मैं फिर मजदूरी पे चला जाता है?
आज के जो नेक लोग हैं वो भी अपनी ज़िम्मेदारी समाज के प्रति नहीं महसूस करते. यहाँ तक की हमको लगता है की, हमारी जिमेदारी केवल, अपनी बीवी और बच्चों की है. अपने वालिद (पिता) की औलाद (भाई बहन) , उसकी बीवी (माँ) केवल वालिद (पिता) की ज़िम्मेदारी है. अगर वालिद (पिता) का इन्तेकाल (स्वर्गवास) हो जाए तो आप देख सकते हैं , की वहीं इंसान अपनी बीवी के लिए , कीमती जेवर लाता है और माँ के लिए केवल दो जोड़े कपडे भी नही ला पाता,. अपने बच्चों के लिए सभी ऐश ओ आराम और अपने पिता के बच्चों (भाई-बहन) के लिए, कुछ नहीं।
हम जब किसी की शादी करते हैं, तो उसमें इतना खर्च कर देते हैं की,उतने  मैं किसी ग़रीब  घर की २-३ साल की परवरिश हो जाए. और अब तो लोग जन्मदिन और दूसरी पार्टियों का बहाना तलाशते हैं महज सिर्फ दिखावा करने के लिए-- वहीं दूसरी तरफ ग़रीब की बेटी पैसे की कमी से घर मैं बैठी रह जाती है. हमने यह मान लिया है की समाज के प्रति , रिश्तेदारों के प्रति , दोस्तों और पड़ोसियों के प्रति हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। इस्लाम मैं ज़रुरत से ज्यादा खर्च करने को इस्राफ कहते हैं और यह मना है. लेकिन केवल मना है, मानता कौन है?

ज्यादातर लोगों का मानना है कि अगर पैसा है तो सब कुछ कर सकते हैं, सब कुछ पा सकते हैं। लेकिन यह भी कडवा सच है की मन की शांति और जीवन का सुख पैसे से नहीं खरीदा जा सकता। मन की शांति और जीवन का सुख प्रेम और दूसरों का दुःख  बाँटने मैं है. यह बात केवल वो समझ सकता है जिसने कभी किसी की मदद की हो।
जहाँ सवाल धन दौलत का आता है तो  हम ग़रीब भाई के बारे मैं नहीं सोंचते! शायद आज ज़रुरत का ही दूसरा नाम मुहब्बत बन गया है. यह सब एक आम बातें हैं जो आज के समाज के सभी कौमों मैं भी मौजूद हैं।

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