Sunday, 23 August 2015

पवित्र कुरआन में है गणितीय चमत्कार!

क्या अब भी पवित्र कुरआन को ईश्वरकृत मानने में कोई दुविधा हे?
हज़रत मुहम्मद "सल्लल्लाहो अलैही वसल्लम आज हमारी आँखों के सामने नहीं हैं लेकिन जिस ईश्वरीय ज्ञान पवित्र कुरआन के ज़रिये उन्होंने लोगों को दुख निराशा और पाप से मुक्ति दिलाई वह आज भी हमें विस्मित कर रहा है।
एक साल में 12 माह और 365 दिन होते हैं। पूरे कुरआन शरीफ में हज़ारों आयतें हैं लेकिन पूरे कुरआन शरीफ में शब्द शह् र (महीना) 12 बार आया है और शब्द ‘यौम’ (दिन) 365 बार आया है। जबकि अलग-अलग जगहों पर महीने और दिन की बातें अलग-अलग संदर्भ में आयी हैं।
क्या एक इन्सान के लिए यह संभव है कि वह विष्यानुसार वार्तालाप भी करे और गणितीय योजना का भी ध्यान रखे?

‘मुहम्मद’ नाम पूरे कुरआन शरीफ़ में 4 बार आया है तो ‘शरीअत’ भी 4 ही बार आया है। दोनों का ज़िक्र अलग-अलग सूरतों में आया है।
‘मलाइका’ (फरिश्ते) 88 बार और ठीक इसी संख्या में ‘शयातीन’ (शैतानों) का बयान है।

‘दुनिया’ का ज़िक्र भी ठीक उतनी ही बार किया गया है जितना कि ‘आखिरत’ (परलोक) का यानि प्रत्येक का 115 बार।

इसी तरह पवित्र कुरआन में अल्लाह ने न केवल स्त्री-पुरूष के मानवधिकारों को बराबर घोषित किया है बल्कि शब्द ‘रजुल’ (मर्द) व शब्द ‘इमरात’ (औरत) को भी बराबर अर्थात् 24-24 बार ही प्रयुक्त किया
है।

ज़कात (2.5 प्रतिशत अनिवार्य दान) में बरकत है यह बात मालिक ने जहाँ खोलकर बता दी है। वही उसका गणितीय संकेत उसने ऐसे दिया है कि पवित्र कुरआन में ‘ज़कात’ और ‘बरकात’ दोनों शब्द 32-32 मर्तबा आये हैं। जबकि दोनाे अलग-अलग संदर्भ प्रसंग और स्थानों में प्रयुक्त हुए हैं।

पवित्र कुरआन में जल-थल का अनुपात:-
एक इन्सान और भी ज़्यादा अचम्भित हो जाता है जब वह देखता है कि ‘बर’ (सूखी भूमि) और ‘बह्र’ (समुद्र) दोनाे शब्द क्रमशः 12 और 33 मर्तबा आये हैं और इन शब्दों का आपस में वही अनुपात है जो कि सूखी भूमि और समुद्र का आपसी अनुपात वास्तव में पाया जाता है।
सूखी भूमि का प्रतिशत- 12/45 x 100 = 26.67 %
समुद्र का प्रतिशत- 33/45 x 100 = 73.33 %

सूखी जमीन और समुद्र का आपसी अनुपात क्या है? यह बात आधुनिक खोजों के बाद मनुष्य आज जान पाया है लेकिन आज से 1400 साल पहले कोई भी आदमी यह नहीं जानता था तब यह अनुपात पवित्र कुरआन में कैसे मिलता है? और वह भी एक जटिल गणितीय संरचना के रूप में।
क्या वाकई कोई मनुष्य ऐसा ग्रंथ कभी रच सकता है?
क्या अब भी पवित्र कुरआन को ईश्वरकृत मानने में कोई दुविधा हे?

वुजू अच्छी सेहत का नायाब नुस्खा!

"प्यारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही वसल्लम ने 1400 वर्ष पहले रात को वुजू बनाकर सोने के लिए प्रोत्साहित किया। इस जमाने में देखें तो योगा एक्सपर्ट भी सोने से पहले हाथ-पैर, मुंह, आंखें आदि धोने की सलाह देते हैं ताकि बॉडी को आराम मिले और गहरी और सुकून की नींद आए।

प्रोफेसर जॉर्ज ऐल कहते हैं:-
जब कोई अपना मुंह धोता है तो उसकी दाढ़ी में मौजूद कीटाणु साफ हो जाते हैं और पानी से गीली होने पर दाढ़ी के बालों की जड़ें मजबूत होती हैं। यही नहीं दाढ़ी के बाल पानी से तर होने से गर्दन की कोशिकाओं, थाइराइड ग्लैंड्स और गले संबंधी बीमारियों से हमारा बचाव होता है।

कोहनियां धोने के फायदे:-
कोहनी में तीन ऐसी नसें हैं जो दिल, दिमाग और लीवर से सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं। देखा गया है कि कोहनियां अक्सर ढकी रहती हैं। कोहनियों को हवा नहीं लगने और उन्हें पानी से नहीं धोते रहने से कई तरह की मानसिक और मस्तिष्क संबंधी जटिलताएं पैदा हो जाती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि वुजू में कोहनियों सहित हाथ धोने से ना केवल हमारे दिल, दिमाग और लीवर को मजबूती मिलती है बल्कि इनसे संबंधित होने वाली परेशानियों से निजात मिलती है।
एक अमरीकी वैज्ञानिक के अनुसार-
पानी तनाव दूर करने, राहत और  सुकून हासिल करने का बेहतरीन जरिया है।
(रिफोर्मेशन मेगजीन नं.296, 1994)

हाथ धोना:-
संक्रमण को रोकने का महत्वपूर्ण और बेहतरीन उपाय है हाथों को धोना
(यू एस सेन्टर ऑफ डिजीज कंट्रोल एण्ड प्रीवेन्सन)

गरारे करना:-
हमारे अध्ययन की सबसे महत्वपूर्ण खोज यह है कि रोज सादा पानी से गरारे करके सर्दी लगने के मामलों को तीस फीसदी तक रोका जा सकता है। स्वच्छ बने रहने की यह सरल और साधारण आदत आम आदमी की सेहत और अर्थव्यवस्था के लिए बेहद फायदेमंद है। (कॉजूनेरीसेटोमुरा, एम.डी.,पीएच.डी., जापान की क्योटो यूनिवर्सिटी में मेडिसन के प्रोफेसर)
                 गौरतलब है कि वुजू में कुल्ली के दौरान गरारे करना सुन्नत है। यह भी देखा गया है कि रोज नमाज अदा करने वाले वे नमाजी जो हर वुजू में गरारे करते हैं, उनमें सिर्फ कुल्ली ही करने वाले नमाजियों की तुलना में  वायरल, बैक्टिरिया पनपने और गले और सांस संक्रमण और फ्लू आदि के मामले पचास फीसदी कम होने के चांस होते हैं।
जब गरारे किए जाते हैं तब पानी गले की परत के संपर्क में आने से पानी गले की परत से बाहरी कणों और रोगाणुओं को साफ कर देता है।

कान:-
वुजू बनाते वक्त कानों को अंदर और बाहर दोनों तरफ से साफ किया जाता है। अंदर की तरफ से साफ करने के लिए गीली उंगली अंदर की तरफ फिराई जाती है। कान को अंदर से साफ करने का यह तरीका कितना कारगर और बेहतर है, इसका अंदाजा अमेरिकन हेयरिंग रिसर्च  फाउंडेशन की इस बात से हो जाता है-
कॉटन लगी स्टिक से कानों की अंदर से सफाई करने की आदत से कान का पर्दा फटने का खतरा रहता है। देखा गया है कि ज्यादातर लोग इसी तरीके से अपने कानों की सफाई करते हैं। हमारा मानना है कि कॉटन स्टिक, हेयर पिन आदि चीजों के इस्तेमाल के बजाय कान साफ करने का सबसे बेहतर तरीका है गीली उंगलियों को कान के अंदर फिरा लेना।

गर्दन और सिर:-
वुजू के दौरान गर्दन और सिर का मसा किया जाता है यानी दोनों हाथों को गीला करके सिर के ऊपर और गर्दन के दाएं-बाएं और पीछे की तरफ से फैरा जाता है। ऐसा करने से ना केवल गर्दन से धूल आदि दूर होती है बल्कि तनाव भी दूर होता है और इंसान राहत महसूस करता है। कई स्ट्रेस थेरेपिस्ट तनाव दूर करने के लिए इसी नुस्खे को बताते हैं। इसी प्रकार गीले हाथ सिर पर फेरने से ना केवल तनाव दूर होता है बल्कि गंजेपन में भी फायदा होता है।

पैर:-
आजकल हर वक्त जूते और मौजे पहने रहने से पैरों में इन्फैक्शन आदि होने का डर रहता है। वुजू में दिन में पांच बार अच्छी तरह पैर धोए जाते हैं। हाथों की उंगलियों से पैरों की उंगलियों का बीच का हिस्सा भी अच्छी तरह धोया जाता है। इससे ना केवल पैरों पर गांठें आदि नहीं होती बल्कि बॉडी का रक्त प्रवाह भी इससे बढ़ता है। इस तरह पैर धोने से शुगर के मरीजों को भी रोग में राहत मिलती है।

इस्लाम के पाँच स्तंभ!

1:-:- तौहीद (एकेश्वरवाद) :-
अल्लाह और बंदे के बीच पैगम्बर को मार्गदर्शक मानता हैं। इस्लाम पुरोहितवाद को स्वीकार नही करता। वह किसी साकार सत्ता को उपासना का आधार नही बनाता जिसको मनुष्य अध्यात्मिक चिंतन के क्षणों में आराध्य की भांति बसाकर अपना सारा ध्यान शक्ति उस पर केंद्रित कर दें और उसमें तन्मय हो जाये। इसमें चित्र या मूर्ति जैसे किसी माध्यम की आवश्यकता नही हैं। ‘इस्लाम एक ऐसा दीन है जो विचारों की पवित्रता, चिंतन की ऊॅंचार्इ, संकल्प और इच्छा की निर्मलता, र्इश्वर के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं से विरचित, कर्मनिष्ठा और विश्वास के उस धरातल पर स्थित है कि उससे मानदण्ड और ऊॅंचा धरातल सोचा नही जा सकता।1

और तुम्हारा अल्लाह के सिवा न कोर्इ संरक्षक मित्र हैं और न सहायक।
                                -2 :सूर-ए-अल-बकरा : 107।

वही तो हैं जिसने तुम्हारे लिये धरती की सारी वस्तुये उत्पन्न की। फिर  अत्यन्त उदार, क्षमाशील , करूणामय और कृपाशील हैं।वह सर्वशक्तिमान शासक, स्रष्टा,बन्दों के लिए जीवन की सुख-सुविधाए प्रदान करने वाला, और एक हैं।उसके अतिरिक्त कोर्इ उपास्य नहीं है। ‘ला इलाह इल्लल्लाहु मुहम्मदुर्ररसूलुल्लाह (नही हैं कोर्इ खुदा मगर अल्लाह, मुहम्मद अल्लाह के रसूल है।) तौहीद की आधारशिला हैं। यही मुसलमानों के ‘दीन’ का मूलमन्त्र हैं। इस्लाम में तौहीद को छोड़ कर शिर्क एवं बहुदेववाद को स्वीकार करना वर्जित है। शिर्क और अनेकेश्वरवाद मनुष्यों की कल्पनामात्र के द्योतक हैं। शिर्क के कारण मनुष्य का ध्यान र्इश्वर के सम्बन्ध मे दुर्बल हो जाता हैं। अल्लाह और बन्दे का रिश्ता टूट जाता हैं। इसलिए इस्लाम मे शिर्क को बहुत बड़ा गुनाह (पाप) माना गया हैं।

मेरे बन्दों को सूचना दे दो कि मै बड़ा ही क्षमाशील और दया करने वाला हू।
-15: सूर-ए-अल-हिज : 48।

‘जिन लोगो ने ‘कुफ्र’ किया ‘किताब वाले’ हो या ‘मुशरिक (बहुदेववादी) हों, कोर्इ नही चाहता कि तुम्हारे ‘रब’ की ओर से तुम पर कोर्इ भलार्इ उतरे। और अल्लाह जिसे चाहता है। अपनी दयालुता के लिए खास कर लेता हैं और अल्लाह बड़ा अनुग्रह वाला हैं।             -2 : सूर-ए-अल-बकरा  105।

आकाश और धरती और जो कुछ उनके बीच हैं सबका राज्य अल्लाह ही के लिए हैं और उसे हर चीज की सामथ्र्य प्राप्त हैं। -5 : सूर-ए-अल-मार्इदा : 120।

वह आकाशों और धरती जैसी अनोखी नर्इ चीजों का बनाने वाला हैं। जब वह किसी बात का निर्णय करता हैं तो बस उसके लिए कह देता हैं-हो जा, तो वह हो जाती हैं।     -2 : सूर-ए-अल-बकरा : 117।

सब प्रशंसा अल्लाह के लिए हैं, जो सारे संसार का ‘रब’ हैं।
                               -1 : सूर-ए-अल-फातिहा

वही जिसने तुम्हारे लिए धरती को बिछौना और आकाश को छत बनाया। आकाश की ओर मे पानी उतारा और उसके द्वारा तुम्हारी रोजी के लिए हर तरह के खाद्य पदार्थ पैदा किए। तो जब तुम जानते हो तो अल्लाह के समवर्ती न बनाओं।
यदि इन दिनों (आकाश और धरती) में अल्लाह के सिवा और दूसरे ‘इलाह’ (पूज्य) भी होते, तो दोनो की व्यवस्था बिगड़ जाती । तो अल्लाह की महिमा के जो राजसिंहासन का ‘रब’ हैं प्रतिकूल हैं जो गुण ये बयान करते हैं।           
-21 : सूर -ए-अल-अंबिया : 22।
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2:-:- नमाज:-
नमाज इस्लाम की रीढ़, दीन का स्तम्भ, मोक्ष की शर्त, र्इमान की रक्षक और पवित्रता की नीव हैं। दिन मे पॉच बार नमाज पढ़ने का आदेश हैं। यह निश्चित समय में ‘अल्लाह’ का स्मरण हैं। इस व्यवस्था का पालन करते हुए मुसलमान पॉच बार खुदा के सामने उपस्थित हो पाप-कर्म से बचने की प्रार्थना और सच्चार्इ के मार्ग पर अग्रसर होने की सामथ्र्य संचित करता हैं। यह सफलता की कुन्जी हैं। र्इश्वर की ‘इबादत’ का विधान हैं। नमाज प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह स्वतन्त्रता हो या दास,सब पर फर्ज है!

1.फज्र (सूर्योदय से पहले)
2.जहर (मध्यान्ह के पश्चात)
3.अस्र (अपरान्ह के पश्चात)
4.मगरिब (सूर्यास्त होने पर)
5.इशा (रात्रि के प्रथम प्रहर में)

फिर जब तुम नमाज पूरी कर चुको, तो खड़े, बैठे और लेटे हर समय अल्लाह को याद करो। फिर जब तुम्हे इत्मीनान हो जाए, तो पूरी नमाज  ‘कायम’ करो। निस्संन्देह र्इमान वालों पर समय की पाबन्दी के साथ नमाज अदा करनी अनिवार्य हैं।  4 : सूर-ए-अन निसा : 103

सफल हो गया वह जिसने अपने को संवारा और अपने ‘रब’ के नाम का स्मरण किया तो नमाज पढ़ी।                              87 : सूर-ए-अल-आला : 14, 15 ।

निस्सन्देह मैं अल्लाह हू। मेरे सिवा कोर्इ ‘इलाह’ नहीं। अत: तू मेरी इबादत कर और मेरी याद के लिए नमाज कायम कर।         20 : सूर-ए-ताहा : 14।

धनवान हो या दरिद्र, रोगी हो या निरोग, यात्री हो या स्थायी रूप से रहने वाला सब पर प्रत्येक परिस्थिति मे अनिवार्य हैं। कोर्इ भी वयस्क व्यक्ति किसी भी स्थिति मे इससे मुक्त नही हो सकता। विशेष परिस्थितियों में ‘कजा’ द्वारा नमाज पूरी की जा सकती हैं। जकात, रोजा, हज्ज के सम्बन्ध मे कुछ शर्तो के उपरान्त छूट मिल जाती हैं। या उसमें कुछ रियायत की आज्ञा हैं, किन्तु नमाज के लिए ऐसी कोर्इ गुंजाइश नही हैं। यहा तक कि मैदान-ए-जंग मे भी नमाज फर्ज हैं।

नमाज ऐसा अमल हैं जिसमें शरीर, बुद्धि और हृदय सम्मिलित होते हैं और इन तीनों में दर्शन और विवेक का सुन्दर सामंजस्य विद्यमान होता हैं। शरीर के हिस्से में कयाम, (खड़ा होना,) रूकूअ (घुटने पर हाथ रखकर झुकना) और सजदा (जमीन पर सर टेकता) आया हैं। जिब्हा के हिस्से मे तिलावत  (कुरआन शरीफ की आयतें पढ़ना) और तस्बीह (र्इश्वर की महानता का वर्णन करना) आर्इ हैं। बुद्धि के हिस्से में चिंतन और हृदय के हिस्से मे र्इश्वर के प्रति तन्मयता और भक्ति भाव से हृदय का द्रवित होना आया हैं। दिन मे पॉच बार की नमाज के अतिरिक्त र्इद, बकरीद, सूर्य या चन्द्र ग्रहण, विपत्ति, मरण आदि के समय भी नमाज कायम की जाती हैं। रमजान के महीने में तरावीह की नमाज पढ़ी जाती हैं। हजरत मुहम्मद सल्ल0 ने कहा हैं - सबसे पहली चीज जिसका कियामत के रोज बंदे से हिसाब लिया जाएगा वह नमाज हैं। अगर यह ठीक रही तो वह कामयाब हुआ और अगर यह खराब निकली तो नाकाम हुआ। अगर उसके फराइज मे कुछ कमी नजर आएगी तो अल्लाह तआला कहेगा कि देखों मेरे बन्दे के नाम-ए-आमाल में कुछ नफली नमाजे हैं। फिर उससे फराइज की कमी को दूर कर दिया जायेगा और बाकी आमाल के साथ भी यही मामला होगा।

इस प्रकार इस्लाम में नमाज की महत्ता अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा अधिक हैं।
            परिस्थितिवश यदि नमाज का निर्धारित समय व्यतीत हो जाये, तो इस्लाम में ‘कजा’ नमाज पढ़ने का आदेश दिया गया है।
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3:-:- रोजा:-
मनुष्य र्इश्वर की विलक्षण रचना हैं। यह शरीर और आत्मा का समन्वित रूप हैं। यदि आत्मा का प्रभाव शरीर की अपेक्षा अधिक हुआ तो मनुष्य सांसारिक जीवन से कट कर भगवद्भक्ति मे लीन हो जाता है और यदि शरीर को आत्मा की तुलना में अधिक महत्व दिया जाये तो मनुष्य ऐश्वर्य प्रेमी बन जाता हैं। अत: इस्लाम ने मनुष्य को इस दलदल से बचाने के लिए ‘रमजान’ माह के रोजे अनिवार्य कर दिए हैं। कुरआन शरीफ में मुसलमानों पर ‘रोजा’ फर्ज किया जाता गया हैं!
       इसका उद्देश्य मनुष्य के आध्यात्मिक और नैतिक विकास के साथ हृदय और आत्मा की शुद्धि हैं। यह मनुष्य को धर्मपरायण और संयमी बनाता हैं। ‘रोजे’ की स्थिति में वह बहुत-सी बुराइयों और अवज्ञाओं से बच जाता हैं। हजरत मुहम्मद सल्ल0 की हदीस के अनुसार रोजा (जीवन संघर्ष में) एक ढाल हैं।
सूर्योदय से आधा घंटा पूर्व ‘सहर’ के समय से सूर्यास्त तक अत्र जल आदि त्याज्य हैं। इस स्थिति में पांच वक्त की नमाज के अतिरिक्त ध्यान, ज्ञान और कुरआन की तिलावत पर विशेष बल दिया गया हैं। इस प्रकार शरीर और हृदय को विभिन्न प्रकार की बुराइयों से मुक्त रखने का विधान हैं। सूर्यास्त होने पर रोजा खोलते या ‘इफतार’ करते हैं।
प्रत्येक वयस्क पर रोजा फर्ज हैं। विशेष परिस्थितियों में धार्मिक शर्तो के साथ ‘रोजे’ के स्थान पर अन्य अनुष्ठानों का आदेश दिया गया हैं, जिनकी पूर्ति के उपरान्त मनुष्य अपने ‘फर्ज’ से ऋण हो सकता हैं।

हे र्इमान वालों! तुम पर रोजा फर्ज किया गया हैं, जिस तरह तुमसे पहले के लोगो पर फर्ज किया गया था, ताकि तुम (अल्लाह का) डर रखने वाले बन जाओं।’    -2 : सूर-ए-अल बकरा 18
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4:-:-ज़कात:-
इस विश्व मे मनुष्य की सुख-सुविधाओं के लिए र्इश्वर ने विभिन्न प्रकार की वस्तुएं निर्मित की हैं। विश्व की सम्पूर्ण वस्तुएं केवल मुट्ठी भर लोगो के अधिकार मे न रहे इसलिए उसने ऐसे नियम बना दिए हैं जिनका पालन करते हुए प्रत्येक मनुष्य आवश्यक और जीवनोपयोगी वस्तुओं को दूसरों तक पहुंचा सकें। यह विधि मनुष्यों मे परस्पर-प्रेम और त्याग की भावना को बल प्रदान करती हैं। इसके लिए इस्लाम मे जकात खुम्स,-खैरात और सदके का विधान हैं। इसके द्वारा मनुष्य का इहलोक और परलोक दोनों मे उद्धार होता हैं। इनमें से खैर-खैरात नेकी की अलामत होते हुए भी अनिवार्य नही हैं, किन्तु कुरआन में धन-सम्पत्ति पर ख्म्स (5वें हिस्से) और जकात (40वें हिस्से) की अनिवार्यता घोषित की गर्इ हैं।

वर्ष में एक बार ‘जकात’ देना आर्थिक दृष्टि से सम्पत्र (साहिबे निसाब) मुसलमान के लिए ‘फर्ज’ हैं। इसकी मात्रा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं (कृषि और उपवन, पशु, बहुमूल्य, वस्तुएं, व्यापार, नौकरी आदि)पर निर्घारित कर दी गर्इ हैं। कृषि और उपवन से सम्बन्धित जकात उत्पत्ति के उपरांत दी जाती हैं। अचानक प्राप्त होने वाले लाभ पर वर्ष व्यतीत होने की प्रतीक्षा किए बिना तुरन्त खुम्स अर्थात पांचवा हिस्सा देना आवश्यक हैं। जिस उपलब्धि के लिए मनुष्य स्वंय परिश्रम करता हैं

‘जो नमाज कायम करते और ‘जकात’ देते हैं और वे ऐसे हैं जो कि आखिरत पर विश्वास करते हैं।        -27 : सूर-ए- अन-नम्ल : 3।

मेनेे उन्हें जो कुछ दिया हैं उसमें से छिपाकर और खुले रूप में खर्च करें, इससे पहले  कि वह दिन आए जिसमें न कोर्इ सौदा होगा और न कोर्इ मित्रता होगी।                   -14 : सूर-ए- इब्राहीम : 31।

और यदि तुम खुले तौर पर ‘सदका’ दो तो यह भी अच्छी बात हैं और यदि उसे छिपा कर गरीबों को दो, तो यह तुम्हारे लिए  ज्यादा अच्छा हैं और वह तुम्हारी कितनी ही बुराइयों को दूर कर देगा। और अल्लाह जो कुछ तुम करते हो उसकी खबर रखता हैं। -2 : सूर-ए-अल-बकरा : 271।

‘है नबी! तुम उनके मालों में से ‘सदका’ लेकर उन्हें पाक करो और उनकी आत्मा को विकसित करो तथा उनके लिए दुआ करो! निस्संदेह तुम्हारी दुआ उनके लिए संतोष-निधि हैं। अल्लाह सुनने और जानने वाला है।
-9 : सूर-ए-अत-तौबा : 103।

‘तुम नेकी और वफादारी के दर्जे को नही पहुंच सकते जब तक कि अपनी उन चीजों में से खर्च न करों जो तुम्हे प्रिय हैं और जो चीज भी तुम खर्च करोगे, अल्लाह उसका जानने वाला हैं।    -3 : सूर-ए-आले इमरान : 92।
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5:-:-हज:-
‘हज्ज’ का अर्थ हैं तीर्थ-दर्शन करना। ‘हज्ज’ एक ‘इबादत’ हैं, जिस में मनुष्य अल्लाह के घर अर्थात काबा के दर्शन करने की इच्छा से मक्का जाता हैं। ‘हज्ज-ए-बैत-उल्लाह’ र्इश्वर के प्रति अपार श्रद्धा, प्रेम, बंदगी और र्इश-प्रशंसा का द्योतक हैं। काबा अल्लाह की इबादत का केन्द्र और शांति का स्थान हैं।परिस्थिति, अर्थ और स्वास्थ्य की दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति पर हज्ज फर्ज है। कुरआन में हज्ज के महत्व की व्यापक चर्चा की गर्इ हैं।काबा दर्शन से अल्लाह के स्मरण के साथ बहुत सी विस्मृत घटनाएं जीवन के साथ पुन: जुड़ जाती हैं। यह अल्लाह की बहुमूल्य देन, धरोहर और निशानी-तौहीद और रसूलों के जिहाद और सब्र-का द्योतक हैं। हज्ज इस्लामी राष्ट्रीयता की विजय का प्रतीक हैं जहां सारे भेद मिटकर केवल एकता शेष रहती हैं। यहां पहुच कर समस्त इस्लामी जातियां अपनी जातीय और राष्ट्रीय वेशभूषा को जो उनकी विशेष पहचान हैं, जिससे जातिगत विषमता उत्पन्न होती हैं त्याग कर एक सा लिबास घारण करती हैं जिसे ‘अहराम’ कहा जाता हैं सब मिलकर बड़ी नम्रता और विनय के साथ भाषा मे एक भाषा मे एक नारा लगाते हैं:-
‘अल्लाहुम्मा लब्बैक-लब्बैक ला शरीक लका लब्बैक-इन्नल हम्द वन्नेमता लका वल मुल्क ला शरीक लका।’
(हाजिर हूं, ऐ अल्लाह! मै तेरे हुजूर हू, तेरा कोर्इ शरीक नहीं। मै तेरे हुजूर हाजिर हू, निश्चय ही प्रशंसा तेरे ही लिए हैं। सारे उपकार तेरे ही हैं। बादशाही सर्वथा तेरी हैं। तेरा कोर्इ शरीक नही।)

अस्तु, उक्त पांच धार्मिक अनुष्ठानों पर इस्लाम की बुनियाद निर्भर हैं। इसके व्यक्ति अंतजंगत और बहिजंगत दोनो मे सन्तुलन स्थापित करने की अपूर्व क्षमता उत्पन्न कर लेता हैं

और याद करो जब कि हमने इस पर (काबा) को लोगो के लिये केन्द्र और शांति स्थल बनाया और हुक्म दिया कि इब्राहीम के वासस्थान को ‘नमाज’ की एक जगह बनाओं। इब्राहीम और इस्मार्इल को जिम्मेदार बनाया कि मेरे घर का ‘तवाफ’ (परिक्रमा) और ‘एतकाफ’ और रूकूअ ‘सजदा’ करने वालों के लिए पाक रखो।
            -2 : सूर-ए-अल-बकरा : 125।

निस्संदेह पहला घर जो लोगो के लिए बनाया गया वही हैं जो मक्का में हैं, सारे संसार के लिये बरकत और मार्ग दर्शन का केन्द्र हैं। वहां स्पष्ट निशानियां हैं, इब्राहीम का वासस्थान हैं, जिसने उसमें प्रवेश किया वह सुरक्षित हो गया और लोगो पर अल्लाह का हक हैं कि जो वहां तक वहुंचने की सामथ्र्य रखते हैं उस घर का हज्ज करें और जिसने कुफ्र किया तो अल्लाह सारे संसार से बे-परवाह हैं। -3 : सूर-ए-आले इमरान : 96, 97।

और लोगो को हज्ज के लिए पुकार दो कि वे प्रत्येक गहरे मार्गो से पैदल और हल्के शरीर की (छरहरी) उटनियों पर तेरे पास आएं, ताकि वे अपने फायदों को देखे (जो यहां उनके लिये रखे गये हैं) और कुछ मालूम (निश्चित) दिनों मे उन मवेशी-चौपायों पर अल्लाह का नाम ले जो उसने उन्हें दिये हैं। फिर उस मे से स्वंय खाओ और तंगहाल मोहताज को भी खिलाओं। फिर अपना मैल-कुचैल दूर करें। अपनी मन्नतों को पूरा करें और इस पुरातन घर (काबा) का ‘तवाफ’ (परिक्रमा) करें।    -22 : सूर-ए-अल-हज्ज् : 27, 28, 29।

इस्लाम की आध्यात्मिक व्यवस्था!

इस्लाम की आध्यात्मिक व्यवस्था और सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था से उसका संबंध समझने के लिए पहले आध्यात्म की इस्लामी अवधारणा तथा अन्य धर्मों और दार्शनिक प्रणालियों की अवधारणाओं के अन्तर को समझ लेना ज़रूरी है। यह अन्तर स्पष्ट न होने के कारण अधिकतर ऐसा होता है कि इस्लाम की आध्यात्मिक व्यवस्था पर चर्चा करते हुए आदमी के दिमाग़ में बिना इरादे के वह अवधारणाएँ घूमने लगती हैं जो प्रायः ‘रूहानियत’ या ‘आध्यात्म’ शब्द के साथ जुड़ गई हैं। फिर इस उलझन में पड़कर आदमी के लिए यह समझना कठिन हो जाता है कि इस्लाम की यह आध्यात्मिक व्यवस्था किस प्रकार की है जो आत्मा के जाने-पहचाने क्षेत्र से निकलकर भौतिकता तथा शारीरिक क्षेत्र में दख़ल देती है और केवल दख़ल ही नहीं देती बल्कि उस पर छा जाना चाहती है।

दर्शन और धर्म की दुनिया में साधारणतया जो विचार पाया जाता है वह यह है कि रूह (आत्मा) और शरीर एक-दूसरे के प्रतिरोधी हैं, दोनों की दुनिया अलग-अलग हैं, दोनों की माँगें अलग बल्कि परस्पर विरोधी हैं। इन दोनों का विकास एक साथ संभव नहीं है। आत्मा के लिए शरीर और पदार्थ की दुनिया एक जेल है। सांसारिक जीवन के संबंध और आकर्षण वे हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ हैं जिनमें आत्मा जकड़ जाती है। दुनिया के कारोबार और क्रियाएँ वह दलदल है, जिसमें फंसकर आत्मा की उड़ान समाप्त हो जाती है। इस सोच का अनिवार्यतः परिणाम यह हुआ कि आध्यात्मिकता तथा सांसारिकता के मार्ग एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हो गए। जिन लोगों ने दुनियादारी अपनाई वह पहले पग पर ही निराश हो गए कि यहाँ रूहानियत उनके साथ न चल सकेगी। इस चीज़ ने उन्हें भौतिकता में डुबो दिया। जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, तात्पर्य यह कि सांसारिक जीवन के सारे अंग अध्यात्म के प्रकाश से वंचित रह गए। परिणामस्वरूप पृथ्वी अत्याचार से भर गई। दूसरी ओर जो लोग आध्यात्म-प्रेमी हुए उन्होंने अपने आत्मिक उत्थान के लिए ऐसे मार्ग चुने जो दुनिया के बाहर ही बाहर से निकल जाते हैं, क्योंकि उनके दृष्टिकोण से आत्मिक उन्नति का कोई ऐसा मार्ग संभव ही न था जो दुनिया के अन्दर से होकर गुज़रता हो। उनके निकट आत्मा की उन्नति के लिए शरीर को कमज़ोर करना ज़रूरी था इसलिए उन्होंने ऐसे ईबादतें  ईजाद की जो वासना को मारने और शरीर को चेतनाशून्य और बेकार कर देने वाली हों। इबादत के लिए उन्होंने जंगलों, पहाड़ों और एकान्तवास को अत्यंत उपयुक्त स्थान समझा ताकि आबादी का कोलाहल ज्ञान-ध्यान में विघ्न न डालने पाए। आत्मिक विकास के लिए उन्हें इसके अतिरिक्त कोई उपाय न सूझा कि संसार तथा उसकी गतिविधियों से हाथ खींच लें तथा उन सभी संबंधों को काट फेंके जो उन्हें भौतिक संसार से जोड़े हुए हैं।

शरीर और आत्मा के इस परस्पर विरोध ने इन्सान के लिए उन्नति के शिखर के दो भिन्न-भिन्न अर्थ एवं लक्ष्य तय कर दिए। सांसारिक जीवन की उन्नति का सर्वोच्च बिन्दु यह निश्चित हुआ कि इन्सान केवल भौतिक सुख-सुविधाओं से मालामाल हो, और अन्तिम लक्ष्य यह ठहरा कि मनुष्य एक अच्छा पक्षी, एक बढ़िया मगरमच्छ, एक श्रेष्ठ घोड़ा और एक सफल भेड़िया बन जाए। दूसरी ओर आध्यात्मिक जीवन की ऊँचाई यह तय हुई कि इन्सान कुछ अलौकिक शक्तियों का मालिक बन जाए और लक्ष्य यह ठहरा कि एक अच्छा रेडियो सेट, एक शक्तिशाली दूरबीन और एक बढ़िया माइक्रोस्कोप बन जाए अथवा उसकी नज़र और उसके शब्द एक पूर्ण औषधालय का काम देने लगें।
इस्लाम का दृष्टिकोण इस मामले में दुनिया की सभी धार्मिक व दार्शनिक व्यवस्थाओं से भिन्न है। वह कहता है कि इन्सानी आत्मा को ईश्वर ने धरती पर अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया है। कुछ कर्तव्य और उत्तरदायित्व उसे सौंपे हैं और उनको पूरा करने के लिए श्रेष्ठतम एवं उपयुक्ततम शारीरिक संरचना प्रदान की है। यह शरीर उसको दिया ही इसलिए गया है कि वह अपने अधिकारों के प्रयोग तथा अपने कर्तव्यों के निर्वाह में इससे काम ले। इसलिए यह शरीर आत्मा के लिए जेल नहीं बल्कि उसका कारख़ाना है और यदि आत्मा का कोई विकास संभव है तो वह इसी प्रकार, कि इस कारख़ाने के औज़ारों तथा ऊर्जा का उपयोग करके अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन करे। फिर यह दुनिया कोई यातनागृह भी नहीं है जिसमें इन्सानी आत्मा किसी प्रकार आकर फंस गई हो; बल्कि यह तो वह कर्मस्थली है जिसमें काम करने के लिए ईश्वर ने उसे भेजा है। यहाँ कि अनगिनत चीज़ें उसके अधीन कर दी गई हैं। यहां दूसरे बहुत-से इन्सान इसी प्रतिनिधित्व के कर्तव्य निभाने के लिए उसके साथ पैदा किए गए हैं। यहाँ प्रकृति की माँगों से सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा जीवन के अन्य विभाग उसके लिए अस्तित्व में आए हैं। यहाँ अगर कोई रूहानी तरक़्क़ी संभव है तो उसका उपाय यह नहीं है कि आदमी इस कर्मस्थली से मुख मोड़कर किसी एकांत में जा बैठे, बल्कि उसका उपाय यह है कि वह इसके अन्दर कार्य करके अपनी योग्यता का परिचय दे। यह उसके लिए परीक्षा-गृह है। जीवन का प्रत्येक पक्ष परीक्षा के प्रश्न-पत्र के समान है। घर, मुहल्ला, बाज़ार, मंडी, दफ़्तर, कारख़ाना, पाठशाला, कचहरी, थाना, छावनी, पार्लियामेंट, अमन कांफ्रेंस (शान्ति सम्मेलन), और युद्ध के मैदान सब विभिन्न विषयों के प्रश्न पत्र हैं जो उसे करने के लिए दिए गए हैं। वह अगर उनमें से कोई प्रश्न पत्र न करे या अधिकतर विषयों की उत्तरपुस्तिका ख़ाली छोड़ दे तो परीक्षाफल में शून्य के अतिरिक्त और क्या पा सकता है? सफलता और उन्नति की संभावना अगर हो सकती है तो इसी तरह कि वह अपना सारा समय और पूरा ध्यान परीक्षा देने पर केन्द्रित करे और जितने पर्चे भी उसे दिए जाएँ उन सबमें अच्छे से अच्छा करके दिखाए।

इस प्रकार इस्लाम ‘संन्यास’ के विचार को रद्द कर देता है और मानव के लिए आत्मिक उत्थान का मार्ग दुनिया के बाहर से नहीं बल्कि दुनिया के अन्दर से निकलता है। आत्मा की उन्नति, विकास और सफलता-प्राप्ति का वास्तविक स्थान उसके अनुसार जीवन की गतिविधियों के ठीक बीच में है, न कि उसके किनारे पर।
अब यह देखना चाहिए कि इस्लाम हमारी आत्मा की उन्नति और अवनति की क्या कसौटी प्रस्तुत करता है? इसका उत्तर उसी ‘प्रतिनिधित्व’ की धारणा में मौजूद है जिसका अभी उल्लेख किया गया है। प्रतिनिधि होने की हैसियत से इन्सान अपने जीवन के सभी कार्यों के लिए ख़ुदा के सामने जवाबदेह है। उसका कर्तव्य यह है कि धरती पर उसे जो अधिकार और साधन दिए गए हैं उन्हें ख़ुदा की मरज़ी के अनुसार इस्तेमाल करे। जिन विभिन्न संबंधों और सम्पर्कों में दूसरे इन्सानों के साथ उसे जोड़ा गया है उनमें ऐसा रवैया अपनाए जो ईश्वर को पसन्द है और कुल मिलाकर अपने सभी प्रयास और परिश्रम धरती की व्यवस्था को इतना उत्तम बनाने में लगा दे जितना उसका ईश्वर देखना चाहता है। इस सेवा को इन्सान जितना अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से आज्ञाकारिता एवं मालिक की प्रसन्नता हेतु सम्पन्न करेगा उतना ही अधिक ईश्वर के निकट होगा और ईश्वर की निकटता ही इस्लाम की दृष्टि में आत्मिक उन्नति है। इसके विपरीत वह जितना आलसी, कामचोर और कर्तव्य-विमुख होगा या जितना उद्दंड, विद्रोही और अवज्ञाकारी होगा उतना ही वह ईश्वर से दूर होगा और ईश्वर से दूरी ही का नाम इस्लाम की भाषा में ‘आत्मिक अवनति’ है।

इस व्याख्या से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस्लामी दृष्टिकोण से दीनदार (धर्मपरायण) और दुनियादार दोनों का कार्यक्षेत्र एक ही है और एक ही कर्मस्थली है जिसमें दोनों कार्य करेंगे। बल्कि धार्मिक व्यक्ति सांसारिक व्यक्ति से भी अधिक तन्मयता से व्यस्त होगा। घर की चारदीवारी से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के मंच तक जितने भी जीवन संबंधी मामले हैं उन सबकी ज़िम्मेदारियाँ धर्मपरायण व्यक्ति भी दुनियादार के बराबर बल्कि उससे कुछ बढ़कर ही अपने हाथों में ले लेगा। हाँ, जो चीज़ उन दोनों के मार्ग अलग करेगी वह ईश्वर के साथ उनके संबंधों की विशेषता है। धर्मपरायण व्यक्ति जो कुछ भी करेगा इस भावना के साथ करेगा कि वह ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है, इस उद्देश्य से करेगा कि उसे ईश-प्रसन्नता प्राप्त हो और उस क़ानून के अनुसार करेगा जो ईश्वर ने उसके लिए बना दिए हैं। इसके विपरीत सांसारिकता धारण करने वाला जो कुछ करेगा अनुत्तरदायी ढंग से करेगा, ईश्वर से विमुख होकर करेगा और अपने मनमाने ढंगों से करेगा। यही अन्तर धार्मिक व्यक्ति के सम्पूर्ण भौतिक जीवन को पूर्ण आध्यात्मिक बना देता है और सांसारिकता धारण करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को आध्यात्म के प्रकाश से वंचित कर देता है।
यहाँ संक्षेप में यह बात प्रस्तुत की जा रही है कि इस्लाम सांसारिक जीवन के बीच से इन्सान के आत्मिक उत्थान का मार्ग किस प्रकार बनाता है:-
1):- इस मार्ग का प्रथम चरण ईमान है, जिसका आशय यह है कि आदमी के मन-मस्तिष्क में यह बात बैठ जाए कि ईश्वर ही उसका मालिक, शासक और पूज्य है। ईश-प्रसन्नता ही उसके सारे प्रयत्नों का मूल उद्देश्य हो और ईश्वर का आदेश ही उसके जीवन का विधान हो। यह विचार जितना अधिक दृढ़ और पक्का होगा उतनी ही अधिक इस्लामी मानसिकता पूर्णता लिए हुए होगी और उतने ही स्थायित्व और दृढ़ निश्चय के साथ इन्सान आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर चल सकेगा।

2):- इस रास्ते की दूसरी मंज़िल आज्ञापालन है। अर्थात मनुष्य का व्यवहारतः अपनी स्वच्छंद स्वतंत्रता को त्याग देना और उस ईश्वर के प्रति व्यवहारिक रूप से समर्पित हो जाना जिसे वह धारणा के रूप में अपना ईश्वर मान चुका है। इसी आज्ञापालन और समर्पण का नाम कु़रआन की शब्दावली में ‘इस्लाम’ है।

3):-तीसरी मंज़िल तक़वा (ईशभय) की है जिसे साधारण भाषा में कर्तव्यपरायणता और उत्तरदायित्व की भावना से व्यक्त किया जाता है। ईशभय यह है कि आदमी अपने जीवन के प्रत्येक पहलू में यह समझते हुए कार्य करे कि उसे अपनी विचारधाराओं, कथनों और कर्मों का हिसाब ईश्वर को देना है। हर उस काम से रुक जाए जिससे ख़ुदा ने मना किया है, हर उस सेवा के लिए तत्पर हो जाए जिसका ख़ुदा ने हुक्म दिया है और पूर्ण विवेकशील ढंग से वैध-अवैध, सही-ग़लत और भलाई-बुराई के बीच अन्तर करके जीवन व्यतीत करे।

4):- अन्तिम और सबसे ऊँची मंज़िल ‘एहसान’ (अति उत्तम आचरण) की है। एहसान का अर्थ यह है कि मनुष्य की इच्छा ईश्वर की इच्छा के साथ एकाकार हो जाए। जो कुछ ईश्वर की पसन्द है वही उसके दास (मनुष्य) की अपनी पसन्द भी हो और जो कुछ ईश्वर को नापसन्द है, दास का अपना दिल भी उसे नापसन्द करे। ईश्वर जिन बुराइयों को अपनी धरती पर देखना नहीं चाहता मनुष्य न केवल यह कि स्वयं उनसे बचे बल्कि उन्हें दुनिया से मिटा देने के लिए अपनी सम्पूर्ण क्षमताएँ और सभी साधन लगा दे। ईश्वर जिन भलाइयों से अपनी धरती को सुसज्जित देखना चाहता है, मनुष्य उनको अपने जीवन में अपनाने तक ही सीमित न रहे बल्कि अपनी जान लड़ाकर दुनिया भर में उन्हें फैलाने और स्थापित करने का प्रयास करे। इस स्थान पर पहुँचकर मनुष्य को अपने ईश्वर का निकटतम सामीप्य प्राप्त होता है और इसी लिए यह इन्सान की आत्मिक उन्नति और विकास का उच्चतम शिखर है।

आध्यात्मिक उन्नति का यह रास्ता व्यक्तियों के लिए ही नहीं बल्कि वर्गों और समूहों के लिए भी है। एक व्यक्ति की भाँति एक क़ौम (राष्ट्र) भी ईमान, आज्ञापालन और ईशभय की मंज़िलों से गुज़रकर एहसान की सर्वोच्च मंज़िल तक पहुँच सकती है और एक राज्य भी अपनी पूर्ण व्यवस्था के साथ ईमान वाला, इस्लाम का अनुगामी, ईशभय धारण करने वाला और एहसान वाला बन सकता है। बल्कि वास्तव में इस्लाम का उद्देश्य तभी पूर्ण हो सकता है जब एक पूरी क़ौम इसी मार्ग पर चले और दुनिया में एक ईशभय रखने वाला, उत्तम आचरण से सुसज्जित राज्य स्थापित हो जाए।

अब आध्यात्मिक प्रशिक्षण की उस व्यवस्था को भी देख लिया जाए तो व्यक्ति और समाज को इस रूप में तैयार करने के लिए इस्लाम ने पेश की है। इस व्यवस्था के चार स्तंभ हैं :
(1) पहला स्तंभ नमाज़ है। यह प्रतिदिन पाँच बार आदमी के मस्तिष्क में ख़ुदा की याद को ताज़ा करती है, उसका भय दिलाती है, उसका प्रेम पैदा करती है, उसके आदेश बार-बार सामने लाती है और उसके आज्ञापालन का अभ्यास कराती है। यह नमाज़ केवल व्यक्तिगत नहीं है बल्कि सामूहिकता के साथ अनिवार्य की गई ताकि पूरी सोसाइटी सामूहिक रूप से आध्यात्मिक उन्नति के इस मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो जाए।

(2) दूसरा स्तंभ रोज़ा है जो हर वर्ष पूरे एक माह तक मुसलमान व्यक्ति को अलग-अलग और मुस्लिम सोसाइटी को सामूहिक रूप से ईशभय का प्रशिक्षण देता रहता है।
और गरीब,भूखो की कठिनाइयो से अवगत कराता है!

(3) तीसरा स्तंभ ज़कात है जो मुसलमान व्यक्तियों में आर्थिक त्याग-भाव, आपसी हमदर्दी और मदद की भावना उत्पन्न करती है। आजकल के लोग भ्रमवश ज़कात को कर (Tax) के अर्थ में लेते हैं, जबकि ‘ज़कात’ की आत्मा कर की आत्मा से सर्वथा भिन्न है। ज़कात का मूल शाब्दिक अर्थ वृद्धि विकास और शुद्धता है। इस शब्द से इस्लाम आदमी के मन में यह तथ्य बैठाना चाहता है कि अल्लाह की मुहब्बत में अपने भाइयों की तुम जो आर्थिक सहायता करोगे, उससे तुम्हारा आत्मिक उत्थान होगा और तुम्हारे आचरण में पवित्रता और शुद्धता आएगी।

(4) चोथा स्तंभ हज है। यह ईशभक्ति की धुरी पर ईमान वाले और आस्थावान मनुष्यों की एक अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी बनाता है और एक ऐसा विश्वव्यापी आन्दोलन चलाता है जो दुनिया में सदियों से ‘सत्य’ के आह्नान पर एकजुटता का ऐलान कर रहा है और अल्लाह ने चाहा तो रहती दुनिया तक वह ऐलान करता रहेगा।