यह एक अटल प्राकृतिक नियम हैं कि जब पाप की अधिकता हो जाती हैं, अत्याचार और हिंसा करने वालो की संख्या बढ़ जाती हैं: नेक और पवित्र मनुष्य सताए जाने लगते हैं, खुदा के बन्दे पुण्य के रास्ते से हटकर पाप के रास्ते पर चलने लगते हैं, अत्याचार और क्रूरता को धर्म बना लेते हैं, अपनी जिन्दगी के मकसद को भूलकर अपनी आत्माओं को अपवित्र और कलुषित कर लेते हैं, उस समय अत्याचार-पीड़ित और दुखी लोगो की सहायता करने वाला और जोर-जबरदस्ती और हिंसा को खत्म करने वाला सबका मालिक अपनी दया और अपनी कृपा से ऐसे पवित्र और महान व्यक्तियों को संसार के विभिन्न भागो मे वहॉ की अवस्था के अनुसार, इस उददेश्य से भेजा करता हैं कि सत्य-मार्ग से भटके हुए इंसानों को फिर उनका सही रास्ता दिखाया जाए और उनको पाप से बचाकर पुण्य की ओर आकर्षित किया जाए। हर धर्म की पुस्तकों में यह बात स्पष्ट रूप से लिखी गर्इ हैं।
इसी प्राकृतिक नियम के अनुसार अरब देश् में अल्लाह ने हजरत मुहम्मद (सल्ल0) को अपने बन्दो के पथ-प्रदर्शन के लिए कुरैश खानदान में भेजा। काबा की कुंजिया इसी परिवार के पास रहती थी। यह भी एक सर्वमान्य सत्य है कि जब ऐसे महान व्यक्तियों का अवतरण होता हैं तो बड़े शुभ चिन्ह प्रकट होते हैं। इतिहास बताता है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के जन्म से पहले अरब मे बड़ा भारी अकाल पड़ा हुआ था, महामारी फैली हुर्इ थी, लेकिन महान रसूल (सल्ल0) के जन्म ग्रहण करते ही पानी बरसा, जिससे महामारी दूर हो गर्इ और अकाल का भी निवारण हो गया और ऐसे विभिन्न चिन्ह प्रकट हुए जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को अल्लाह का बन्दा ओर रसूल होने के प्रमाण प्रस्तुत करते थे, जिनके विस्तार की यहां जरूरत नहीं।
सवाल यह हो सकता हैं कि अरब जैसे बंजर और मरूभूमि मे इस पवित्र आत्मा का अवतरण क्यो हुआ? इसके बारे मे उस समय देश की जो दशा थी, उसका वर्णन कर देना काफी होगा-
(1) वहां के लोग उस समय अशिक्षित, असभ्य, अक्खड़, बर्बर, हठी, अड़ियल, झगड़ालू और भ्रांतियों के जाल में फंसे हुए थे। शिक्षा की इतनी कमी थी कि हजरत पैग़म्बर साहब के विकास के समय केवल सत्रह आदमी शिक्षित थे। इस संख्या से प्रकट होता है कि शिक्षा नही के बराबर थी।
(2) मदिरापान, जुआ, व्यभिचार का बाजार गर्म था। लोग अपनी दासियों से व्यभिचार करा के धन कमाया करते थे, और अपनी बहनों तक से विवाह कर लेते थे।
(3)पिता की पत्नी पर उत्तरधिकारी के रूप में पुत्र अधिकार कर लेता था।
(4) पत्नी-त्याग का बहुत अधिक रिवाज था। पति जब चाहता था पत्नी को छोड़ सकता था। कोर्इ नियम या सिद्धान्त न था। बहु-विवाह की कोर्इ सीमा न थी।
(5) लोग जात-पात पर बहुत गर्व करते थे। धन-दौलत और परिवार का घमंड करते थे। इसी कारण दास-प्रथा प्रचलित थी।
(6) एक स्त्री से कर्इ-कर्इ पुरूष सम्बन्ध रखते थे और बच्चा होने की अवस्था में वह स्त्री निर्णय कर देती थी कि बच्चा किसका हैं।
(7)कुसंस्कारों की भरमार थी। हर काम मे शगुन लिया जाता था। मूर्तियों पर मनुष्य की बलि चढ़ार्इ जाती थी। समाधि के पास उंट बांधकर उसको भूखा-प्यासा मारना पुण्य का काम समझा जाता। लड़कियों को जीवित गाड़ दिया जाता था।
(8)यदि अकाल पड़ता तो गाय की पूंछ में घास बांधकर आग लगा दी जाती थी, इस विश्वास से कि यह आकाश से वर्षा खींच लेगी।
(9) बदले की भावना बहुत तेज थी। मामूली-मामूली बातों पर खून-खराबा हो जाता था। किसी इंसान की हत्या के बाद उसके नाक-कान भी काट लिए जाते थे। इस रिवाज को ‘मुसला’ कहा जाता था।
(10) युद्ध मे जो स्त्रियां और बालक बन्दी होकर आते थे, उनको भी मार डाला जाता था, गर्भवती औरत का गर्भपात करा दिया जाता था। छोटे-छोटे बच्चो को भालों पर लटकाया जाता था। सोते हुए आदमियों पर आक्रमण किया जाता था। मनुष्यों का सिर, कान आदि काट कर उनका हार बनाकर पहना जाता था।
लोगो का साधारण धर्म मूर्ति-पूजा था। दूसरे धर्मो के लोग आटे मे नमक के बराबर थे। हर परिवार का अलग-अलग देवता था। यह थी वहां के लोगो की दशा! अर्थात् वह मानवता से बहुत दूर जा पड़े थे। शिष्टता लेशमात्र को न थी। नैतिकता का दिवाला निकल चुका था। र्इमान-धर्म नाम मात्र को भी न थी, सहानुभूति और शुभकामना से उनके हृदय खाली हो चुके थे। वे अज्ञानता और बर्बरता में डूबे हुए थें। उनके हृदय द्वेष, शत्रुता, दुष्टता और पाप से भरे हुए थे। दूसरे को हानि पहुचाते हुए न उनको र्इश्वर का भय था और न मानवता के कर्तव्य का ध्यान। दूसरों को दुख देते हुए भी उनके हृदय में दया उत्पन्न न होती थी। वे कहने को मनुष्य थे, परन्तु उनका स्वभाव पशुओं का-सा था। वे देखने में मनुष्य थे और कर्म में पिशाच। वे हिंसक थे जो अपने सजाति मनुष्यों को भी क्षण भर में चीर-फाड़ डालते थे। अति तुच्छ बातों पर दूसरों के प्राण ले लेना खेल समझते थे। दूसरो की बहू-बेटियों के सतीत्व को नष्ट करना और उनसें बर्बरतापूर्ण व्यवहार करना उनके बाये हाथ का खेल था। दूसरों की मान-मर्यादा को नष्ट करने में उनको बड़ा आनन्द मिलता था। दूसरो के जान और माल की क्षति मे वे बड़ी खुशी महसूस करते थें दूसरों पर अत्याचार और ज्यादती करने में उनको बहुत खुशी महसूस होती थी। अबोध बालकों को पिताहीन और भली स्त्रियों को विधवा बना देना उनकी नीति थी। मासूम और असहाय लोगो पर आक्रमण करना उनका स्वभाव था। दूसरो के माल को लूट लेना वे अपना धर्म समझते थे। दूसरों के धन और सामग्री को किसी भी अनुचित उपाय से प्राप्त कर लेना पुण्य कार्य समझते थें। वे धर्म और शास्त्र का अर्थ भूल चूके थे। उन्हे ज्ञान तक न था कि मनुष्य होने के नाते दूसरे मनुष्यों के प्रति उनके क्या कर्तव्य हैं। उन्हे पता न था कि शिष्टता, मानवता और सभ्यता किस वस्तु का नाम हैं। उन्हे ज्ञान तक न था कि नेक काम, नैतिकता और सदाचार किसको कहते हैं और मनुष्यता किस चीज का नाम हैं।
यह थी उस समय के अरबवालों की दशा । अल्लाह ऐसी दशा को पसन्द नही करता । उसे मनुष्यों की इतनी पथभ्रष्टता नही भाती। उन दुराचारी और शैतानी गुण रखने वाले मनुष्यों के पथ-प्रदर्शन और शिक्षा के लिए अल्लाह ने अपनी दया से उन्ही के बीच एक पवित्र आत्मा को प्रकट किया और फरिश्ते हजरत जिबरील द्वारा लोगो के कुकर्मो और कुरीतियों पर अप्रसन्नता प्रकट की। महान पुण्य आत्मा हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के पवित्र जीवन को उनके लिए आदर्श बनाया, जिसका फल यह हुआ कि वे पशुता और पैशाचिकता को छोड़कर मनुष्य बन गए।
•यह था उस ‘अहमद’ और हामिद को भेजने का उददेश्य,
•यह था उस ‘सययदुल मुर्सलीन (नबियों के सरदार) के भेजे जाने का अभिप्राय:,
•यह था उस ‘‘रहमतुल्लिल आलमीन" के अवतरण का ध्येय,
•यही था दीने इस्लाम के विकासमान होने का कारण।
•यह धर्म उस प्रशंसित व्यक्ति द्वारा पुनर्जीवित किया गया जिसको:-
•मुनीर (प्रकाशमान),
•नजीर (अल्लाह से डराने वाला),
•हादी (सुपथ प्रदर्शक),
•मुस्तफा (पाप रहित और श्रेष्ठ),
•अजीज (प्रिय),
•इमाम (सरदार),
•मुद्दस्सिर, (पवित्र वस्त्रधारी),
•मुज्जम्मिल (कमली वाला),
•मुजक्किर (उपदेशक),
•खैरूलबशर (पुण्यात्मा)
और खैरो खल्किल्लाह (अल्लाह की सृष्टि का उत्तम पुरूष)
"सल्लाहु अलैहि वसल्लम"आदि पवित्र नाम दिए गए हैं।
अत: इससे प्रकट होता है कि इस्लाम धर्म के आविर्भाव से अल्लाह का उददेश्य और अभिप्राय यह था कि सारी बुराइयां दूर हो और इस धर्म के ऐसे अनुयायी पैदा हो, जो मानव जाति का कल्याण चाहने वाले , संसार मे शान्ति कायम करने वाले और भलार्इ के मार्ग पर चलने वाले हो, जो मानवता के गुणों से परिपूर्ण हो, जो मनुष्यों के हक को समझे। जो पड़ोसियों के हक से परिचित हो, जो सहृदय हो,न्यायी और न्याय रक्षक हो, अपने परवरदिगार से डरने वाले हो, स्त्रियों और बच्चो की रक्षा करने वाले हो, बूढो और निर्बलो पर दया करने वाले हो, शुद्ध जीविका (हलाल रोजी) कमाने वाले हो, किसी का हक छीनने वाले न हो, किसी पर अत्याचार और ज्यादती करने वाले न हो। अपनी आमदनी पर सन्तोष करने वाले हो, सदाचारी और संयमी हो, सांसारिक धन को संयम और र्इश्वर-भय के आगे तुच्छ समझने वाले हो।
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