इस्लाम में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बड़ा बल दिया गया हैं। परन्तु इसका उददेश्य यह नही हैं कि पड़ोसी की सहायता करने से पड़ोसी भी समय पर काम आए, अपितु इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया हैं, इसे आवश्यक करार दिया गया हैं और यह कर्तव्य पड़ोसी ही तक सीमित नही है बल्कि किसी साधारण मनुष्य से भी असम्मान जनक व्यवहार न करने की ताकीद की गर्इ हैं। पवित्र कुरआन में लिखा है:-
" और लोगों से अपना मुँह न फेर। और धरती पर अकड़ कर न चल। निस्सन्देह अल्लाह किसी अकड़ने वाले और अभिमान (घमण्ड) करने वाले को पसन्द नहीं करता। कुरआन, 31:18
पडोसी के साथ अच्छे व्यवहार का विशेष रूप से आदेश हैं। न केवल निकटतम पड़ोसी के साथ, बल्कि दूर वाले पड़ोसी के साथ भी अच्छे व्यवहार की ताकीद आर्इ हैं। सुनिए-
‘‘ और अच्छा व्यवहार करते रहो- माता-पिता के साथ, सगे-सम्बन्धियो के साथ, अब लाओं के साथ, दीन-दुखियों के साथ, निकटतम और दूर के पड़ोसियों के साथ! कुरआन, 4:36
पड़ोसी के साथ व्यवहार के कर्इ कारण हैं-एक विशेष बात यह हैं कि मनुष्य को हानि पहुंचने की आशंका भी उसी व्यक्ति से अधिक होती हैं जो निकट हो।
इसलिए उसके सम्बन्ध को सुदृढ़ और अच्छा बनाना एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य हैं ताकि पड़ोसी सुख और प्रसन्न्ता का साधन हो, न कि दुख और कष्ट का कारण।
पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने के सम्बन्ध में जो अल्लाह सुब्हानहू व तआला का फरमान मुबारक अभी प्रस्तुत किया गया है उसके महत्व को पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने विभिन्न ढंग से बताया हैं और आपने स्वयं भी उस पर अमल किया हैं।
एक दिन आप सल्ल0 अपने सहाबा रजि0 के दरमियान तशरीफ फरमा थें! आपने फरमाया:-’’खुदा की कसम, वह मोमिन नही! खुदा की कसम, वह मोमिन नही! खुदा की कसम, वह मोमिन नही!’’ आपने तीन बार इतना बल देकर कहा तो सहाबा ने पूछा-’’कौन ऐ अल्लाह के रसूल?’’ आपने फरमाया-’’ वह जिसका पड़ोसी उसकी शरारतों से सुरक्षित न हो’’।
एक और अवसर पर आपने फरमाया:-
‘‘ जो खुदा पर और कियामत पर र्इमान रखता हैं, उसको चाहिए कि अपने पड़ोसी की रक्षा करें।’’
एक बार आपके एक साथी ने आपसे शिकायत की कि ऐ अल्लाह के ‘‘ रसूल! मेरा पड़ोसी मुझे सताता हैं। आपने फरमाया-’’ जाओं, धैर्य, से काम लो।’’ इसके बाद वह फिर आया और शिकायत की। आपने फरमाया-’’ जाकर तुम अपने घर का सामान निकालकर सड़क पर डाल दो।’’ साथी ने ऐसा ही किया। आने-जाने वाले उनसे पूछते तो वह उनसे सारी बाते बयान कर देते। इस पर लोगो ने उनके पड़ोसी को आड़े हाथों लिया और उसे बड़ी लज्जा की अनुभूति हुर्इ। वह अपने पड़ोसी को मनाकर दोबारा घर में वापस लाया और वादा किया कि अब वह उसे न सताएगा।
मेरे गैर-मुस्लिम भार्इ इस घटना को पढ़कर चकित रह जाएंगे और सोचेंगे कि क्या सचमुच एक मुसलमान को इस्लाम धर्म मे इतनी सहनशीलता की ताकीद हैं और क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकता हैं। हॉ, निस्संदेह इस्लाम धर्म और रसूले करीम (सल्ल0) ने ऐसी ही ताकीद फरमार्इ है और इस्लाम के सच्चे अनुयायी इसके अनुसार अमल भी करते हैं, जैसा कि ऊपर की घटनाओं से प्रकट हैं। अब भी ऐसे पवित्र व्यक्ति इस्लाम के अनुयार्इयों में मौजूद हैं जो इन सब बातों को सम्पूर्ण रूप से कार्यान्वित करते हैं, ये ऐसे लोग हैं जिन्हे सिर-आंखों पर बिठाया जाना चाहिए। मेरे कुछ भार्इ इस भ्रम में रहते हें कि पड़ोसी का अर्थ केवल मुसलमान पड़ोसी ही से हैं, गैर-मुस्लिम पड़ोसी से नही। उनके इस भ्रम को दूर करने के लिए एक ही घटना लिख देना पर्याप्त होगा।
एक दिन हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि0) ने एक बकरी जब्ह की। उनके पड़ोस में एक यहूदी भी रहता था। उन्होने अपने घरवालों से पूछा-’’ क्या तुम ने यहूदी पड़ोसी का हिस्सा इसमें से भेजा हैं, क्योकि अल्लाह के रसूल (सल्ल0) से मुझे इस सम्बन्ध में ताकीद पर ताकीद सुनने का अवसर प्राप्त हुआ हैं कि हर एक पड़ोसी का हम पर हक हैं।’’
यही नही कि पड़ोसी के सम्बन्ध मे पवित्र कुरआन के इस पवित्र आदेश का समर्थन हजरत मुहम्मद(सल्ल0) ने जबानी फरमाया हो, बल्कि आपके जीवन की घटनाएॅ भी इसका समर्थन करती हैं।
एक बार कुछ फल हजरत रसूले करीम (सल्ल0) के पास उपहार स्वरूप आए। आपने सर्वप्रथम उनमें से एक भाग अपने यहूदी पड़ोसी को भेजा और बाकी भाग अपने घर के लोगो को दिया।
मै यह बात दावे से कह सकता हूं कि निसन्देह धर्म में परस्पर मेल-मिलाप की शिक्षा मौजूद हैं। परन्तु जितनी जबरदस्त ताकीद पड़ोसी के सम्बन्ध में इस्लाम धर्म में हैं
कम से कम मैने किसी और धर्म में नही पार्इ।
निसंदेह अन्य धर्मो में हर एक मनुष्य को अपने प्राण की तरह प्यार करना,अपने ही समान समझना, सब की आत्मा में एक ही पवित्र र्इश्वर के दर्शन करना आदि लिखा हैं। किन्तु स्पष्ट रूप से अपने पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने और उसके अत्याचारों को भी धैर्यपूर्व सहन करने के बारे मे जो शिक्षा पैग़म्बरे इस्लाम ने खुले शब्दो मे दी हैं वह कही और नही पार्इ जाती । अपने पड़ोसी से दुव्र्यवहार की जितनी बुरार्इ रसूले करीम (सल्ल0) ने बयान फरमार्इ हैं और उसे जितना बड़ा पाप ठहराया है, किसी और धर्म में उसका उदाहरण नही मिलता। इसलिए सत्यता यही हैं कि पड़ोसी के अधिकारों को इस प्रकार स्वीकार करने से इस्लाम की यह शान बहुत बुलन्द नजर आती हैं। इस्लाम का दर्जा इस सम्बन्ध में बहुत ऊंचा हैं। यह शिक्षा इस्लाम धर्म के ताज में एक दमकते हुए मोती के समान है और इसके लिए इस्लाम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। ऐ मुस्लिम भार्इ! रसूले करीम (सल्ल0) के पवित्र जीवन का पवित्र आदर्श आपके लिए पथ-प्रदर्शक दीप के समान हैं। इस लिए हम लोगो को अन्य धर्मावलम्बियों के लिए एक नमूना बनकर दिखाना चाहिए।
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