Sunday, 23 August 2015

इस्लाम की जीवन व्यवस्था!

मानव के अन्दर नैतिकता की भावना एक स्वाभाविक भावना है जो कुछ गुणों को पसन्द और कुछ दूसरे गुणों को नापसन्द करती है। यह भावना व्यक्तिगत रूप से लोगो में भले ही थोड़ी या अधिक हो किन्तु सामूहिक रूप से सदैव मानव-चेतना ने नैतिकता के कुछ मूल्यों को समान रूप से अच्छार्इ और कुछ को बुरार्इ की संज्ञा दी हैं। सत्य, न्याय, वचन पालन और अमानत को सदा ही मानवीय नैतिक सीमाओं में प्रशंसनीय माना गया हैं और कभी कोर्इ ऐसा युग नही बीता जब झूठ, जुल्म, वचन भंग और खियानत को पसन्द किया गया हो। हमदर्दी, दयाभाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहा गया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदर योग्य स्थान नही मिला। धैर्य, सहनशीलता, स्थैर्य, गम्भीरता, दृढ़संकल्पता व बहादुरी वे गुण हैं जो सदा से प्रशंसनीय रहे है।
                     इसके विपरीत धैर्यहीनता, श्रुद्रता, विचार की अस्थिरता, निरूत्साह और कायरता पर कभी भी श्रद्धा-सुमन नही बरसाएं गए। आत्मसंयम, स्वाभिमान, शिष्टता और मिलनसारी की गणना सदैव उत्तम गुणों में ही होती रही और कभी ऐसा नही हुआ कि भोग-विलास, ओछापन और अशिष्टता ने नैतिक गुणों की सूची में कोर्इ जगह पार्इ हो। कर्तव्यपरायणता, विश्वसनीयता, तत्परता एवं उत्तरदायित्व की भावना का सदा सम्मान किया गया तथा कर्तव्य विमुख, धोखाबाज, कामचोर तथा गैर जिम्मेदार लोगो को कभी अच्छी नजर से नही देखा गया। इसी प्रकार सामूहिक जीवन के सदगुणों व दुर्गुणों के मामले मे भी मानवता का फैसला एक जैसा रहा हैं। आदर की दृष्टि से वही समाज देखा गया हैं जिसमें अनुशासन और व्यवस्था हो, आपसी सहयोग तथा सहकारिता हो, आपसी प्रेमभाव तथा हितचिन्तन हो, सामूहिक न्याय व सामाजिक समानता हो। आपसी फूट, बिखराव, अव्यवस्था, अनुशासनहीनता, मतभेद, परस्पर, द्वेषभाव, अत्याचार और असमानता की गणना सामूहिक जीवन के प्रशंसनीय लक्षणों मे कभी भी नही की गर्इ। ऐसा ही मामला चरित्र की अच्छार्इ और बुरार्इ का भी हैं। चोरी, व्यभिचार, हत्या, डकैती, धोखाधड़ी और धूसखोरी कभी सत्कर्म नही माने गए। अभद्र भाषण, उत्पीड़न, पीठ पीछे बुरार्इ, चुगलखोरी, र्इष्र्या, दोषारोपण तथा उपद्रव फैलाने को कभी ‘पुण्य’ नही समझा गया। मक्कार, घमण्डी, आडम्बरवादी, कपटाचारी, हठधर्म, और लोभी व्यक्ति कभी भले लोगो में नही गिने गए। इसके विपरीत मां-बाप की सेवा, संबंधियों की सहायता, पड़ोसियों से अच्छा व्यवहार, मित्रों से हमदर्दी, निर्बलो की हिमायत, अनाथो और बेसहारो की देखरेख, रोगियो की सेवा तथा पीड़ितो की मदद सदैव नेकी समझी गर्इ है। स्वच्छ चरित्र वाला मधुर भाषी, विनम्र भाव व्यक्ति और सब की भलार्इ चाहने वाले लोग सदा आदरणीय रहे। मानवता उन्ही को अपना उत्तम अंश मानती रही हैं जो सच्चे और शुभ-चिन्तक हो, जिनपर हर मामले मे भरोसा किया जा सके, जिनका बाहर और भीतर एक सामान हो, किसी कथनी, करनी में समानता हो, जो अपने हितों की प्राप्ति में संतोष करने वाले और दूसरों के अधिकारों और हितो को देने में उदार हृदय हो, शान्तिपूर्वक रहे और दूसरों को शान्ति प्रदान करे, जिनके व्यक्तित्व से प्रत्येक को ‘भलार्इ’ की आशा हो और किसी को बुरार्इ की आशंका न हो। इससे मालूम हुआ कि मानवीय नैतिकताएं वास्तव में ऐसी सर्वमान्य वास्तविकताएं हैं जिन्हे सभी लोग जानते हैं और सदैव जानते चले आ रहे हैं। अच्छार्इ और बुरार्इ कोर्इ ढकी-छिपी चीजे नही हैं कि उन्हे कही से ढूॅढकर निकालने की आवश्यकता हो। वे तो मानवता की चिरपरिचित चीजे है जिनकी चेतना मानव की प्रकृति में समाहित कर दी गर्इ हैं।
यही कारण हैं कि कुरआन अपनी भाषा में नेकी और भलार्इ को ‘मारूफ’ (जानी-पहचानी हुर्इ चीज़) और बुरार्इ को ‘मुन्कर’ (मानव की प्रकृति जिसका इन्कार करे) के शब्दों से अभिहित करता हैं।
      "अर्थात भलार्इ और नेकी वह चीज हैं जिसे सभी लोग भला जानते हैं और ‘मुन्कर’ वह हैं जिसे कोर्इ अच्छार्इ और भलार्इ के रूप में नही जानता। इसी वास्तविकता का कुरआन दूसरे शब्दों में इस प्रकार वर्णन करता हैं:-
          इस्लाम का जवाब यह हैं कि इस सृष्टि का स्वामी ‘र्इश्वर’ हैं और वह एक ही स्वामी हैं। उसी ने इस सृष्टि को पैदा किया। वही इसका एकमात्र परवरदिगार, शासक और पालनहार हैं। उसी के आदेशानुपालन के कारण यह सारी व्यवस्था चल रही हैं। वह तत्वदश्री, सर्वशक्तिमान हैं, प्रत्यक्ष और परोक्ष का जानने वाला हैं। सभी दोषो, भूलों, निर्बलताओं तथा कमियों से मुक्त हैं। उनकी व्यवस्था मे लोग लपेट या टेढ़ापन बिलकुल नही हैं। मनुष्य उसका जन्मजात बन्दा (दास) हैं। उसका कार्य यही हैं कि वह अपने स्रष्टा की बन्दगी (गुलामी) और आज्ञापालन करें।
             उसके जीवन का लक्ष्य र्इश्वर के प्रति समर्पण और आज्ञापालन हैं जिनकी पद्धति निर्धारित करना मनुष्य का अपना काम नही बल्कि उस र्इश्वर का काम है जिसका वह दास हैं। र्इश्वर ने उसके मार्गदर्शन हेतु अपने दूत (पैगम्बर) भेजे हैं और ग्रन्थ उतारे है। मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी जीवन-व्यवस्था इसी र्इश्वरीय मार्गदर्शन के स्रोत से प्राप्त करें। मनुष्य अपने सभी कार्यकलापों के लिए र्इश्वर के सामने उत्तरदायी हैं और इस उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में उसे इस लोक में नही बल्कि परलोक मे हिसाब देना हैं। वर्तमान जीवन तो वास्तव मे परीक्षा की अवधि है। इसलिए यहां मनुष्य के सम्पूर्ण प्रयास इस लक्ष्य की ओर केन्द्रित होने चाहिए कि वह आखिरत की जवाब देही में अपने परवरदिगार के समक्ष सफल हो जाए। आखिरत (परलोक) की इस परीक्षा मे मनुष्य अपने पूरे अस्तित्व के साथ सम्मिलित हैं। उसकी सभी शक्तियों एवं योग्यताओं की परीक्षा हैं। पूरे विश्व की जो चीजे भी मनुष्य के सम्पर्क में आती हैं उसके बारे में निष्पक्ष जांच होती हैं कि मनुष्य ने उन चीजों के साथ कैसा मामला किया और यह जॉच करने वाली वह सत्ता है जिसने धरती के कण-कण पर, हवा और पानी, विश्वात्मक तरंगो पर और खुद इन्सान के दिल व दिमाग और हाथ-पैर पर, उसकी गतिविधियों का ही नही बल्कि उसके विचारों तथा इरादों तक का ठीक-ठीक उपलब्ध कर रखा है।

यह हैं वह उत्तर जो इस्लाम ने जीवन के मूलभूत प्रश्नों का दिया हैं। सृष्टि और मनुष्य के संबंध मे उक्त अवधारणा उस वास्तविक और परम कल्याण के लक्ष्य को निर्धारित कर देती हैं जिसे प्राप्त करने का भरपूर प्रयास मनुष्य को करना चाहिए, और वह हैं र्इश्वर की प्रसन्नता। यही वह मानदण्ड हैं जिस पर इस्लाम की नैतिक व्यवस्था में किसी कार्य शैली को परखकर यह निर्णय किया जाता हैं कि वह ‘भला’ हैं या ‘बुरा’। इसके निर्धारिण से नैतिकता को वह धुरी मिल जाती हैं जिसके चारों ओर सम्पूर्ण नैतिक जीवन धूमता हैं और उसकी स्थिति लंगर रहित जहाज की-सी नही रहती कि हवा के झोंके और समुन्द्र की लहरों के थपेड़े उसे इधर-उधर दौडा़ते फिरे। यह निर्धारण एक केन्द्रिय उद्देश्य सामने रखता हैं जिसके परिणाम स्वरूप जीवन मे सभी नैतिक गुणों की उचित सीमाएं उचित स्थान और उपयुक्त व्यावहारिक रूप निश्चित हो जाते हैं। हमे वह स्थायी मूल्य मिल जाते हैं जो परिवर्तनशील परिस्थितियों मे भी अपनी जगह अटल रह सकें। फिर सबसे बड़ी बात यह हैं कि र्इश प्रसन्नता का लक्ष्य प्राप्त कर लेने से नैतिकता को एक उच्चतम परिणाम मिल जाता हैं जिसके फलस्वरूप नैतिक उत्थान की सम्भावनाएं
असीम हो जाती हैं और किसी चरण में भी स्वार्थपरता का प्रदूषण उसे दूषित नही कर सकता।

मापदण्ड प्रदान करने के साथ इस्लाम अपने इसी विश्व तथा मानव अवधारणा पर आधारित नैतिक सौन्दर्य तथा असौन्दर्य के ज्ञान का एक स्थायी स्रोत भी हमे प्रदान करता हैं। उसने हमारे नैतिकता के ज्ञान को मात्र हमारी बृद्धि या इच्छाओं या अनुभवों अथवा मानवीय ज्ञान के भरोसे नही छोड़ा हैं कि यदि ये चीजें अपने निर्णय बदल दे तो हमारे नैतिक सिद्धान्त भी बदल जाएं और उन्हे कोर्इ स्थायित्व न मिल सके, बल्कि इस्लाम ने हमे दो निश्चित स्रोत (र्इशग्रन्थ और र्इशदूत का आदर्श) प्रदान किए हैं जिससे हमे हर युग तथा प्रत्येक परिस्थिति में नैतिक निर्देश प्राप्त होते हैं। ये निर्देश ऐसे व्यापक हैं कि घरेलू जीवन के छोटे से छोटे मामलात से लेकर बड़ी-बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक समस्याओं तक जीवन के हर पक्ष और प्रत्येक विभाग में वे हमारा मार्गदर्शन करते हैं। उनके अन्दर जीवन संबंधी विषयों पर नैतिक सिद्धान्तों का वह व्यापक निरूपण (Widest Application) पाया जाता हैं जो किसी स्तर पर किसी अन्य साधन की आवश्यकता ही प्रतीत नही होने देता।

सृष्टि व मानव सम्बन्धी इस्लाम की इसी अवधारणा में वह क्रियान्वयन शक्ति (Sanction) भी मौजूद हैं जिसका होना नैतिक कानून को लागू करने के लिए जरूरी हैं और वह हैं अल्लाह का खौफ (र्इशभय), आखिरत (परलोक) की पूछताछ का डर और शाश्वत भविष्य की असफलता  का खतरा । यद्यपि इस्लाम एक ऐसी शक्ति और जनमत (Public Opinion) भी तैयार करना चाहता हैं जो सामाजिक जीवन में व्यक्तियों एवं समुदायों को नैतिक नियमों की पाबन्दी पर विवश करने वाले हो और एक ऐसी राजनैतिक व्यवस्था भी बनाना चाहता हैं जिसके द्वारा नैतिकता संबंधी आचार संहिता बलपूर्वक लागू करे परन्तु इसमे दबाव की अपेक्षा आन्तरिक प्रेरणा अधिक शक्तिशाली हो जो र्इश्वर और परलोक के विचार पर आधारित हो। नैतिकता संबंधी निर्देश देने से पहले इस्लाम आदमी के दिल में यह बात बिठाता हैं कि तेरा मामला वास्तव में उसअल्लाह के साथ है जो हर समय हर जगह तुझे देख रहा हैं। तू दुनिया भर से छिप सकता हैं मगर उससे नही छिप सकता। दुनिया भर को धोखा दें सकता है मगर उसे धोखा नही दे सकता। दुनिया भर से भाग सकता हैं मगर उसकी पकड़ से बचकर कही नही जा सकता। दुनिया केवल तेरा बाहरी रूप देख सकती है मगर अल्लाह तेरी नीयत तथा तेरे इरादों तक को देख लेता हैं। दुनिया के थोड़े से जीवन मे तू जो चाहे कर ले मगर तुझे अन्तत: मरकर उसकी अदालत मे उपस्थित होना हैं जहां वकालत, रिश्वत , सिफारिश, झूठी गवाही, धोखा कुछ भी न चल सकेगा और तेरे भविष्य का निष्पक्ष फैसला हो जाएगा। इस विश्वास के द्वारा इस्लाम मानो हर व्यक्ति के दिल में पुलिस की एक चौकी स्थापित कर देता है जो अन्दर से उसको आदेश पालन पर विवश करती हैं। चाहे बाहर उन आदेशों की पाबन्दी कराने वाली पुलिस, अदालत और जेल मौजूद हो या न हो। इस्लाम के नैतिक कानून के पीछे यहां वास्तविक शक्ति है जो उसे लागू कराती हैं। जनमत और शासन का समर्थन भी इसे प्राप्त हो तो कहना ही क्या ! वरना मात्र यही र्इमान और विश्वास मुसलमानों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से सीधा चला सकता हैं शर्त यही हैं कि सच्चा र्इमान दिलों मे बैठा हुआ हों।

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