इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था की आधारशिला यह सिद्धान्त हैं कि दुनिया के सब इन्सान एक नस्ल के हैं। र्इश्वर ने सर्वप्रथम एक इन्सानी जोड़ा पैदा किया था, फिर उसी जोड़े से वे सारे पैदा कर दिए जो दुनिया में बसे हैं। आरम्भ मे इस जोड़े की सन्तान काफी समय तक एक ही समुदाय बनी रही । उनका धर्म, उनकी भाषा एक ही थी। उनके बीच कोर्इ भेद न था। मगर जैसे-जैसे उनकी संख्या बढ़ती गर्इ वे धरती पर फैलते गए और इस फैलाव के कारण स्वाभाविक रूप से विभिन्न नस्लों, समुदायों तथा वंशो मे विभक्त हो गए। उनकी भाषाएं अलग हो गर्इ, उनके पहनावे बदल गए और रहन-सहन के ढंग अलग हो गए। जगह-जगह की विविध जलवायु के कारण उनके रंगरूप और डील-डौल भी परिवर्तित हो गए । ये सब विविधताएं स्वाभाविक हैं जो वास्तविक के धरातल मे मौजूद हैं। इसलिए इस्लाम इनको एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है, वह उनको मिटाना नही चाहता, बल्कि उनका यह लाभ मानता हैं कि मनुष्यों का आपसी परिचय और सहयोग इसी प्रकार से संभव हैं। परन्तु इन अन्तरों के कारण इन्सानों में भाषा, राष्ट्रीयता और वतन सम्बन्धी जो पक्षपात उत्पन्न हो गए हैं उन सबको इस्लाम अनुचित ठहराता है। इन्सान और इन्सान के बीच ऊंच-नीच, अपने-पराए,
कुलीन और नीच सम्बन्धी जितने भेदभाव जन्म के आधार पर अपना लिए गए है, इस्लाम के निकट ये सब अज्ञानता की बाते हैं। वह सम्पूर्ण विश्व के इन्सानों से कहता हैं कि तुम सब एक मां एक बाप की संतान हो, अत: एक-दूसरे के भार्इ हो और इन्सान होने के नाते बराबर हो।
मानवता के इस दृष्टिकोण को अपनाने के पश्चात् इस्लाम कहता हैं कि इन्सानों के बीच वास्तविक अन्तर रंग, नस्ल, वतन और भाषा का नही, बल्कि विचार, नैतिक आचरण तथा सिद्धान्तों का हो सकता हैं। एक मां के दो बच्चे अपनी नस्ल की दृष्टि से चाहे एक हो परन्तु अगर उनके विचार और आचरण भिन्न-भिन्न है तो उनके जीवन-मार्ग अलग-अलग हो जाएंगे। इसके विपरीत पूर्व और पश्चिम के दूरस्थ छोरो पर बसने वाले दो मुख्य यद्यपि बाह रूप से एक दूसरे से कितने ही दूर हो, परन्तु यदि वे एक जैसे विचार रखते हैं और उनके आचरण एक दूसरे से मिलते है तो उनके जीवन का मार्ग एक होगा। इस अवधारणा के आधार पर इस्लाम संसार के सभी नस्ल, वतन, और कौम पर आधारित समाजो के विपरीत एक वैचारिक, नैतिक तथा सैद्धान्तिक समाज का निर्माण करता हैं, जिसमें इन्सानों का आपस में मिलने का आधार उनका जन्म नही बल्कि एक आस्था और एक आचार संहिता हैं। हर वह व्यक्ति जो र्इश्वर को अपना मालिक व पूज्य माने और पैगम्बरों द्वारा लार्इ हुर्इ शिक्षा और मार्गदर्शन को अपने जीवन का कानून मान ले, इस समाज मे शामिल हो सकता हैं, चाहे वह अफ्रीका का रहने वाला हो या अमेरिका का, चाहे वह सामी नस्ल का हो या आर्य नस्ल का हो, चाहे वह काला हो या गोरा, चाहे वह हिन्दी बोलता हो या अरबी । जो लोग भी इस समाज मे सम्मिलित होंगे उन सबके अधिकार तथा सामाजिक स्तर बराबर होंगे। किसी भी प्रकार के जातीय, कौमी या वर्गीय भेद उनके बीच न होंगें। कोर्इ उंचा या नीचा न होगा, कोर्इ छूत-छात उनमें न होगी और किसी का हाथ लगने से कोर्इ अपवित्र न होगा।
शादी-विवाह, खान-पान तथा मेल-जोल में उनके बीच किसी प्रकार की बाधाएं न होगी। कोर्इ अपने जन्म अथवा पेशे के आधार पर तुच्छ या हीन न होगा। किसी की अपनी जाति या गोत्र के आधार पर कोर्इ विशेषाधिकार प्राप्त न हो सकेंगे। आदमी की श्रेष्ठता उसके गोत्र अथवा उसके धन के कारण न होगी बल्कि केवल इस कारण होगी कि उसका चरित्र अधिक उंचा हैं तथा वह दयालुता तथा र्इशभय में अन्य लोगो से बढ़ा हुआ हैं।
यह एक ऐसा समाज है जो जाति, रंग भाषा तथा भोगोलिक सीमाओं को तोड़कर धरती के प्रत्येक भाग में फैल सकता हैं तथा उसके आधार पर इन्सानों की एक अन्तराष्ट्रीय बिरादरी की स्थापना हो सकती हैं। जाति तथा देश के आधार पर बने समाजो में तो केवल वे लोग सम्मिलित हो सकते हैं जो किसी जाति या देश में जन्मे हो। इससे बाहर के व्यक्तियों पर प्रत्येक ऐसे समाज का द्वार बन्द होता हैं। परन्तु इस वैचारिक तथा सैद्धान्तिक समाज में हर वह व्यक्ति समान अधिकारों सहित सम्मिलित हो सकता हैं जो एक अकीदे (आस्था) तथा एक आचार संहिता को माने। रहे वे लोग जो इस अकीदे और नियम को न माने तो यह समाज उन्हे अपनी परिधि में नही लेता मगर इन्सानी भार्इचारे का सम्बन्ध उनके साथ जोड़े रखने तथा मानवाधिकार उन्हे देने के लिए तैयार है। स्पष्ट है कि अगर एक मां के दो बच्चों के विचारों में अन्तर हैं तो उनके जीने के ढंग भी निश्चित रूप से अलग होंगे, मगर इससे उनके भार्इ होने का रिश्ता समाप्त नही हो जाएगा।
ठीक इसी प्रकार मानव-जाति के दो गिरोह भी अगर आस्था तथा सिद्धान्त में अन्तर रखते हैं तो उनके समाज निश्चय ही अलग होगे मगर हर हाल में मानवता उनके बीच उभयनिष्ठा (Common) रहेगी। इस उभयनिष्ठ मानवता के आधार पर अधिक से अधिक जिन अधिकारों की कल्पना की जा सकती हैं वह सब इस्लामी समाज ने गैर इस्लामी समाजों के लिए स्वीकार किए हैं।
इस्लामी सामाजिक व्यवस्था की इन बुनियादों को समझ लेने के बाद आइए देखे कि वे क्या सिद्धान्त और तरीके हैं जो इस्लाम ने इन्सानी मेल-मिलाप के विभिन्न रूपों के लिए बनाए हैं।
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