Sunday, 2 August 2015

इस्लाम में मानव अधिकार!

‘इस्लाम में मानव-अधिकार’’के विषय पर मुझे आप से कुछ अर्ज करना है, लेकिन इस से पहले मैं जरूरी समझता हूं कि दो बातों पर अच्छी तरह रोशनी डाल दूं, ताकि बहस के दौरान उनके बारे में कोर्इ उलझन पेश न आये।

पहली बात- पश्चिमी देशों में मानव-अधिकारों की कल्पना पाश्चात्य लोगो का यह उसूल रहा हैं कि वह हर अच्छी चीज को अपनी बना कर पेश करते हैं और यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि यह नेमत और खूबी बस हमारे जरिये से दुनिया को मिली हैं, वरना दुनिया इन चीजों से नावाकिफ और बेखबर थी। अब जरा इसी मानव-अधिकार के मसले को देखिए। बड़े दावों के साथ कहा जाता हैं कि इस की जानकारी लोगो को इंगलिस्तान के मैगनाकारटा के द्वारा हासिल हुर्इ हैं। हालांकि फिर भी वह इस्लाम के छ: सौ साल बाद की चीज हैं। लेकिन हकीकत यह हैं कि सत्रहवीं सदी के कानूनदानों से पहले किसी के दिमाग में यह कल्पना मौजूद न थी कि मैगनाकारटा में ट्रायल बार्इ ज्यूरी (Trial by July) हैबीस काप्सं (Habcas Corpus) और टैक्स लगाने के अधिकारो पर पार्लिमेन्ट के कन्ट्रोल के हूकूक भी शामिल हैं। और अगर मैगनाकारटा के लिखने वाले इस जमाने में मौजूद होते तो उनको सख्त हैरत होती कि मैगनाकारटा मे यह चीजें भी मौजूद थीं। जहॉ तक मेरी मालूमात का संबंध हैं, सत्रहवी सदी से पहले पाश्चात्य लोगो में मानव-अधिकार और शहरी अधिकार की कोर्इ कल्पना मौजूद न थी। सत्रहवी सदी के बाद भी एक लम्बी मुद्दत तक दार्शनिकों और कानूनी दृष्टिकोण पेश करने वाले लोगो ने तो जरूर इस ख्याल को पेश किया था। लेकिन अमलन इस कल्पना का सुबूत अठ्ठारहवीं सदी के आखिर में अमेरिका और फ्रांस के संविधानों और एलानों ही में मिलता है। उसके बाद विभिन्न देशों के संविधानों में बुनियादी अधिकारो का जिक्र किया गया हैं, मगर अधिकांश हालात में यही सूरत पार्इ गर्इ हैं कि जो अधिकार कागज पर दिये गये हैं, वे जमीन पर नही दिये। मौजूद सदी के मध्य में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने, जिसको अब असंयुक्त राष्ट्रसंघ कहना ज्यादा बेहतर होगा, मानव-अधिकारों का ऐलान (Universal Declaration of Human Rights) प्रकाशित किया, और नस्ल-कुशी (Genocide) के खिलाफ भी एक करारदाद मंजूर की और कानून बनाया। लेकिन अब सब जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्रसंघ का कोर्इ जाब्ता भी ऐसा नही हैं जिस पर अमल करना जरूरी हो, जिसके पीछे कोर्इ ताकत ऐसी हो जो उसको लागू कराये। इसके उन तमाम फैसलों के बावजूद इन्सानी हुकूक जगह-जगह पामाल हुए हैं और संयुक्त राष्ट्रसंघ इनकी कोर्इ रोकथाम नही कर सका हैं। दुनिया में नस्ल-कुशी बराबर हो रही है। लेकिन संयुक्त राष्ट्रसंघ मे यह ताकत नही हैं कि उसके खिलाफ कोर्इ कार्यवाही करे। इस पर कही किसी मुल्क के खिलाफ भी आज तक कोर्इ कार्यवाही नहीं की गर्इ।
                    "दूसरी बात- खा़लिस इन्सानी-अधिकार इन्सान की हैसियत से इन्सान के अधिकार "सबसे पहली चीज जो इस मामले में हमे इस्लाम के अन्दर मिलती हैं, वह यह हैं कि इस्लाम बजाये खुद इन्सान की हैसियत से इन्सान के कुछ हक और अधिकार मुकर्रर करता हैं। दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह हैं कि हर इन्सान चाहे, वह हमारे अपने देश और वतन का हो या किसी दूसरे देश और वतन का, हमारी कौम का हो या किसी दूसरी कौम का, मुसलमान हो या गैर मुस्लिम, किसी जंगल का रहने वाला हो या किसी रेगिस्तान मे पाया जाता हो, बहरहाल सिर्फ इन्सान होने की हैसियत से उसके कुछ हक और अधिकार हैं जिन को एक मुसलमान लाजिमी तौर पर अदा करेगा और उसका फर्ज हैं कि वह उन्हे अदा करे। आइये अब जानते है इसलाम मे मानव अधिकार:-

1-जिन्दा रहने का अधिकार:-
इन मे सबसे पहली चीज जिन्दा रहने का अधिकार और इन्सानी जान के आदर का कर्तव्य हैं। कुरआन में फरमाया गया हैं कि ‘‘ जिस आदमी ने किसी एक इन्सान को कत्ल किया, बगैर इसके कि उससे किसी जान का बदला लेना हो, या वह जमीन मे फसाद फलाने का मुजरिम हो, उसने मानों तमाम इन्सानों को कत्ल कर दिया’’ (5:32) जहॉ तक खून का बदला लेने या जमीन मे फसाद फैलाने पर सजा देने का सवाल हैं, इसका फैसला एक अदालत ही कर सकती हैं। या किसी कौम से जंग हो तो एक बाकायदा हुकूमत ही इसका फैसला कर सकती है। बहरहाल किसी आदमी को व्यक्तिगत रूप से यह अधिकार नही हैं कि खून का बदला ले या जमीन मे फसाद फैलाने की सजा दें। इसलिए हर इन्सानपर यह वाजिब हैं कि वह हरगिज किसी इन्सान का कत्ल न करे। अगर किसी ने एक इन्सान का कत्ल किया तो यह ऐसा है जैसे उसने तमाम इन्सानों को कत्ल कर दिया। इसी बात को दूसरी जगह पर कुरआन में इस तरह दुहराया गया हैं-

‘‘किसी जान को हक के बगैर कत्ल न करो, जिसे अल्लाह ने हराम किया हैं।’’ (6:152)
यहॉ भी कत्ल की मनाही को ऐसे कत्ल से अलग किया गया हैं जो हक के साथ हो, और हक का फैसला बहरहाल कोर्इ अधिकार रखने वाली अदालत ही करेगी। अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने किसी जान के कत्ल को शिर्क के बाद सब से बड़ा गुनाह करार दिया है।’’ सबसे बड़ा गुनाह अल्लाह के साथ शिर्क और किसी ‘नफ़्स’ को कत्ल करना हैं।’’ इन तमाम आयतों और हदीसों मे स्वतंत्र से ‘नफ़्स’ का लफ़्ज इस्तेमाल किया गया हैं जो किसी खास नफ़्स को मख़सूस नहीं करता कि उसका मतलब यह लिया जा सके कि अपनी कौ़म या अपने मुल्क के शहरी, या किसी खास नस्ल, रंग या वतन, या मजहब के आदमी को कत्ल न किया जाये। हुक्म तमाम इन्सानों के बारे में हैं और बजाये खुद हर इन्सानी जान को हलाक करना हराम किया गया हैं।

2. जीने का अधिकार ‘‘ इन्सान’’ को सिर्फ इस्लाम ने दिया है:-
अब आप देखिए कि जो लोग मानव-अधिकारों का नाम लेते हैं, उन्होने अगर अपने संविधानों में या ऐलानो में कहीं मानव-अधिकारों का जिक्र किया हैं तो हकीकत में इस में यह बात छिपी (Implied) होती है कि यह हक या तो उनके अपने नागरिकों के हैं, या फिर वह उनको सफे़द नस्ल वालों के लिए खास समझते हैं। जिस तरह आस्ट्रेलिया में इन्सानों का शिकार करके सफेद नस्ल वालों के लिए पुराने बाशिन्दों से जमीन खाली करार्इ गर्इ और अमेरिका में वहॉ के पुराने बाशिन्दों की नस्लकुशी की गर्इ और जो लोग बच गये उन को खास इलाकों (Reservations) में कैद कर दिया गया और अफ्रीका के विभिन्न इलाको में घुस कर इन्सानों को जानवरों की तरह हलाक किया गया, यह सारी चीजे इस बात को साबित करती हैं कि इन्सानी जान का ‘‘ इन्सान’’ होने की हैसियत से कोर्इ आदर उन के दिल में नही हैं। अगर कोर्इ आदर हैं तो अपनी कौम या अपने रंग या अपनी नस्ल की बुनियाद पर हैं। लेकिन इस्लाम तमाम इन्सानों के लिए इस हक को तस्लीम करता हैं। अगर कोर्इ आदमी जंगली कबीलों से संबंध रखता हैं तो उसको भी इस्लाम इन्सान ही समझता हैं।

3.जान की हिफाजत का हक़:-
कुरआन की जो आयत मैने अभी पेश की है उसके फौरन बाद यह फरमाया गया हैं कि ‘‘ और जिसने किसी नफ़स को बचाया उसने मानों तमाम इन्सानों को जिन्दगी बख्शी ।’’(5:32) आदमी को मौत से बचाने की बेशुमार शक्ले हैं। एक आदमी बीमार या जख्मी हैं, यह देखे बगैर कि वह किस नस्ल, किस कौम या किस रंग का हैं, अगर वह आप को बीमारी की हालत में या जख्मी होने की हालत में मिला है तो आपका काम यह हैं कि उसकी बीमारी या उसके जख्म के इलाज की फिक्र करें। अगर वह भूख से मर रहा हैं तो आप का काम यह हैं कि उसको खिलायें ताकि उसकी जान बच जाये। अगर वह डूब रहा हैं या और किसी तरह से उसकी जान खतरे में हैं तो आप का फर्ज हैं कि उसको बचाएं। आपको यह सुनकर हैरत होगी कि यहूदियों की मजहबी किताब ‘‘ तलमूद’’ मे हुबहू इस आयत का मजमून मौजूद हैं, मगर उसके शब्द ये हैं कि ‘‘ जिस ने इस्राइल की एक जान को हलाक किया, अलकिताब (Scripture) की निगाह में उसने मानो सारी दुनिया का हलाक कर दिया और जिसने इस्राइल की एक जान को बचाया अलकिताब  के नजदीक उसने मानों सारी दुनिया की हिफाजत की।’’-तलमूद में यह भी साफ लिखा हैं,
अगर कोर्इ गैर इस्राइली डूब रहा हो और तुमने उसे बचाने की कोशिश की तो गुनहगार होगे। नस्ल परस्ती का करिश्मा देखिये । हम हर इन्सान की जान बचाने को अपना फर्ज समझते हैं, क्योकि कुरआन ने ऐसा ही हुक्म दिया हैं। लेकिन वह अगर बचाना जरूरी समझते हैं तो सिर्फ बनी इस्राइल की जान को, बाकी रहे दूसरे इन्सान, तो यहूदी-दीन मे वह इन्सान समझे ही नही जाते उनके यहॉ ‘गोयम’ जिसके लिए अंग्रेजी में  (Gentile) और अरबी में उम्मी का लफ़ज इस्तेमाल किया जाता हैं, यह हैं कि उनके कोर्इ इन्सानी अधिकार नही है। इन्सानी हुकूक सिर्फ बनी इस्राइल के लिए खास हैं। कुरआन में भी इस का जिक्र आया हैं कि यहूदी कहते है कि ‘‘ हमारे उपर उम्मियों के बारे में (यानी उनका माल मारखाने में) कोर्इ पकड़ नही हैं।’’ (3:75)

4-औरत की आबरू  का आदर:-
तीसरी अहम चीज इस्लाम के दिये हुये मानव-अधिकारों में यह है। कि औरत की अस्मत और इज्जत कर हाल मे आदर के योग्य हैं, चाहे औरत अपनी कौम की हो, या दुश्मन कौम की, जंगल बियाबान मे मिले या फतह किये हुये शहर में, हमारी अपने मजहब की हो या दूसरे मजहब से उसका ताल्लुक हो, या उसका कोर्इ भी मजहब हो, मुसलमान किसी हाल में भी उस पर हाथ नही डाल सकता। उसके लिये जिना को हर हाल में हराम किया गया हैं चाहे यह कुकर्म किसी भी औरत से किया जाये। कुरआन के शब्द हैं-’’ जिना के करीब भी न फटको। (17:32) और उसके साथ ही यह भी किया गया हैं कि इस काम की सजा मुकर्रर कर दी गर्इ। यह हुक्म किसी शर्त के साथ बन्धा हुआ नही हैं। औरत की अस्मत और इज्जत पर हाथ डालना हर हालत में मना हैं और अगर कोर्इ मुसलमान इस काम को करता हैं तो वह इस की सजा से नही बच सकता, चाहे दुनिया मे सजा पाये या आखिरत में। औरत के सतीत्व के आदर का यह तसव्वुर इस्लाम के सिवा कहीं नही पाया जाता। पाश्चात्य फौजो को तो अपने मुल्क में भी ‘‘ काम वासना की पूर्ति’’ के लिए खुद अपनी कौम की बेटियां चाहिए होती हैं । और गैर कौम के देश पर उनका कब्जा हो जाये तो उस देश की औरतों की जो दुर्गत होती हैं, वह किसी से छुपी हुर्इ नही हैं। लेकिन मुसलमानों की तारीख-व्यक्तिगत इंसानी गलतियों को छोड़कर-इस से खाली रही हैं कि किसी देश को फतह करने के बाद उनकी फौजें हर तरफ आम बदकारी करती फिरी हों, या उनके अपने देश में हुकूमत ने उनके लिये बदकारीयां करने का इन्तिजाम किया हो। यह भी एक बड़ी नेमत है जो मानव-जाति को इस्लाम की वजह से हासिल हुर्इ हैं।

5-हर मांगने वाले और तंगदस्त का यह हक हैं कि उसकी मदद की जाये:-
कुरआन मे यह हुक्म दिया गया हैं कि ‘‘ और मुसलमानों के मालों में मदद मांगने वाले और महरूम रह जाने वाले का हक हैं। ‘‘(05:19) पहली बात तो यह कि इस हुक्म में जो शब्द आये है वे सबके लिए हैं, उस में मदद करने को किसी धर्म विशेष के साथ खास नहीं किया गया हैं, और दूसरे यह कि हुक्म मक्के मे दिया गया था, जहां मुस्लिम समाज का कोर्इ बाकायदा वजूद ही नही था। और आम तौर पर मुसलमानों का वास्ता गैर-मुस्लिम आबादी ही से होता था। इसलिए कुरआन की उक्त आयत का साफ मतलब यह हैं कि मुसलमानों के माल पर हर मदद मांगने वाले और हर तंगदस्त और महरूम रह जाने वाले इन्सान का हक हैं। यह हरगिज़ नही देखा जायेगा कि वह अपनी कौम या अपने देश का हैं या किसी दूसरी कौम, देश या नस्ल से उसका संबंध हैं। आप हैसियत और सकत रखते हो और कोर्इ जरूरत मन्द आप से मदद मांगे, या आप को मालूम हो जाये कि वह जरूरत मंद है तो आप जरूर उसकी मदद करें। खुदा ने आप पर उसका यह हक कायम कर दिया हैं।

6-हर इन्सान की आजादी का हक़:-
इस्लाम मे किसी आजाद इन्सान को पकड़ कर गुलाम बनाना या उसे बेच डालना बिल्कुल हराम करार दिया गया हैं। अल्लाह के रसूल(सल्ल0) के साफ शब्द ये हैं कि तीन किस्म के लोग है जिन के खिलाफ कियामत के दिन मै खुद इस्तिगासा दायर करूंगा। उनमें से एक वह आदमी हैं, जो किसी आजाद इन्सान को पकड़ कर बेचे और उसकी कीमत खाये।  रसूल(सल्ल0) के इस फरमान के शब्द भी आम हैं। उसको किसी कौम या नस्ल या देश व वतन के इन्सान के साथ खास नही किया गया हैं। पाश्चात्य लोगो को बड़ा गर्व हैं कि  उन्होने गुलामी का खात्मा किया हैं। हालाकि उन्हे यह कदम उठाने का अवसर पिछली सदी के बीच मे मिला हैं। उस से पहले जिस बड़े पैमाने पर वे अफ्रीका से आजाद इन्सानो को पकड़-पकड़ कर अपनी नव-आबादियों में ले जाते रहे हैं और उनके साथ जानवरो से भी बुरा सुलूक करते रहे है, इसका जिक्र उनकी अपनी ही लिखी हुर्इ किताबों में मौजूद हैं।

7-पाश्चात्य कौमों की गुलामसाज़ी:-
अमेरिका और हिन्द के पश्चिमी जंजीरों वगैरह पर इन कौमों का कब्जा होने के बाद साढ़े तीन सौ साल तक गुलामी की यह जालिमाना तिजारत जारी रही हैं अफ्रीका के जिस तट पर देश के अन्दर से काले लोगो को पकड़ कर लाया जाता और बन्दरगाहों से उनको आगे भेजा जाता था, इसका नाम गुलामों का तट (Slave Coast) पड़ गया था। सिर्फ एक सदी में (1680 र्इ0 से 1786 र्इ0 तक) सिर्फ ब्रिटेन के कब्जा किये हुए इलाकों के लिए, जितने आदमी पकड़ कर ले जाये गये उनकी तादाद खुद ब्रिटेन के लेखको ने दो करोड़ बतार्इ हैं। सिर्फ एक साल ऐसा बताया गया हैं। (सन 1790र्इ0) जिस में पिचहत्तर हजार अफ्रीकी पकड़े और गुलाम बनाये गये। जिन जहाजो में वे ले जाये जाते थे, उनमें इन अफ्रीकियों को बिल्कुल जानवरों की तरह ठूंस कर बन्द कर दिया जाता था और बहुतों को जन्जीरों से बांध दिया जाता था। उनको न ठीक से खाना दिया जाता था, न बीमार पड़ने या जख्मी हो जाने की सूरत में उनके इलाज की फिक्र की जाती थी। पाश्चात्य लेखको का अपना बयान हैं कि गुलाम बनाने और जबरदस्ती खिदमत लेने के लिए जितने अफ्रीकी पकडे गये थे, उनमें से 20% का रास्ते ही मे खात्मा हो गया। यह भी अन्दाजा किया जाता है कि सामूहिक रूप से विभिन्न पाश्चात्य कौमों ने जितने लोगो को पकड़ा था उनकी तादाद दस करोड़ तक पहुंचती थी। इस तादाद में तमाम पाश्चात्य कौमों की गुलाम साजी के आदाद व शुमार शामिल हैं। ये हैं वे लोग जिन का यह मुह हैं कि हम पर रात दिन गुलामी को जायज रखने का इल्जाम लगाते रहे हैं। मानों नकटा किसी नाक वाले को ताना दे रहा है कि तेरी नाक छोटी हैं।

8-इस्लाम में गुलामी की हैसियत:-
संक्षेप में मै आप को यह भी बता देना चाहता हूं कि इस्लाम में गुलामी की हैसियत क्या हैं। अरब में जो लोग इस्लाम से पहले के गुलाम चले आ रहे थे, उनके मामले को इस्लाम ने इस तरह हल किया कि हर मुमकिन तरीको से उनको आजाद करने की प्रेरणा दी गर्इ। लोगो को हुक्म दिया गया कि अपने कुछ गुनाहों के प्रायश्चित के तौर पर उनको आजाद करें। अपनी खुशी से खुद किसी गुलाम को आजाद करना एक बड़ी नेकी का काम करार दिया गया। यहां तक कहा गया कि आजाद करने वाले का हर अंग उस गुलाम के हर अंग के बदले में दोजख से बच जायेगा। इसका नतीजा यह हुआ कि ‘‘ खिलाफते राशिदा’’ के दौर तक पहुंचते-पहुंचते अरब के तमाम पुराने गुलाम आजाद हो गया।
अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने खुद 63 गुलाम आजाद किये। हजरत आइशा (रजि0) के आजाद किये हुए गुलामों की तादाद 67 थी। हजरत अब्बास (रजि0) ने 70, हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि0) ने एक हजार और अब्दुर्रहमान बिन औफ(रजि0) ने बीस हजार गुलाम खरीद कर आजाद कर दिये। ऐसे ही बहुत से सहाबा (रजि0) के बारे में रिवायतों में तफसील आर्इ हैं कि उन्होने खुदा के कितने बन्दो को गुलामी से मुक्त किया था। इस तरह पुराने दौर की गुलामी का मसला तीस-चालीस साल में हल कर दिया गया।
मौजूदा जमाने मे इस मसले का जो हल निश्चित किया गया है, वह यह हैं कि जंग के बाद दोनो तरफ के जंगी कैदियों का तबादला कर लिया जाये। मुसलमान इसके लिए पहले से तैयार थे, बल्कि जहां कहीं मुखालिफ पक्ष ने कैदियो के तबादले को कुबूल किया, वहां बगैर झिझक इस बात पर अमल किया गया। लेकिन अगर इस जमाने की किसी लड़ार्इ मे एक हुकूमत पूरे तौर पर हार खा जाये और जीतने वाली ताकत अपने आदमियों को छुड़ा ले और हारी हुर्इ हुकूमत बाकी ही न रहे कि अपने आदमियों को छुड़ा सके तो तजुर्बा यह बताता हैं कि पराजित कौम के कैदियों को गुलाम से बदतर हालत मे रखा जाता हैं। हमे बताया जाये कि पिछले विश्व युद्ध मे रूस ने जर्मनी और जापान के जो कैदी पकड़े थे, उनका अन्जाम क्या हुआ । उनका आज तक हिसाब नही मिला हैं। कुछ नही मालूम कि कितने जिन्दा रहे और कितने मर खप गये। उनसे जो खिदमते ली गये, वे गुलामी की खिदमत से बदतर थी। शायद फिरऔन के जमाने में अहराम बनाने के लिए गुलामों से उतनी जालिमाना खिदमते न ली गर्इ होगी जितनी रूस में साइबेरियां और पिछडे इलाकों को तरक्की देने के लिए जंगी कैदियों से ली गयी।
अब मै फिर अपने अस्ल विषय पर आता हूँ।

9-हर इन्सान का यह हक़ हैं कि उसके साथ न्याय किया जायें:-
यह एक बहुत अहम अधिकार हैं, जो इस्लाम ने इन्सान को इन्सान होने की हैसियत से दिया हैं। कुरआन में आया हैं कि ‘‘ किसी गिरोह, की दुश्मनी तुम्हे इतना न भड़का दे.................कि तुम नामुनासिब ज्यादती करने लगो।’’ (5:8) आगे चल कर इसी सिलसिले मे फिर फरमाया, ‘‘और किसी गिरोह की दुश्मनी तुम को इतना उत्तेजित न कर दें कि तुम इन्साफ से हट जाओ, इन्साफ करो, यही धर्म परायणता से करीबतर हैं।’’ (5:8) एक और जगह फरमाया गया हैं कि ‘‘ ऐ लोगो! जो र्इमान लाये हो, इन्साफ करने वाले और खुदा के वास्ते गवाह बनो।’’(5:8) मालूम हुआ कि आम इन्सान ही नही दुश्मनों तक से इन्साफ करना चाहिए। दूसरे शब्दों में इस्लाम जिस इन्साफ की दावत देता हैं, वह सिर्फ अपने देश के रहने वालों के लिए या अपनी कौम के लोगों के लिए या मुसलमानों के लिए ही नही, बल्कि दुनिया भर के सब इन्सानों के लिए हैं। हम किसी से भी बेइन्साफी नही करते, हमारा हमेशा रवैया यह होना चाहिए कि कोर्इ आदमी भी हम से बे-इन्साफी का अंदेशा न रखे और हम हर जगह हर आदमी के साथ न्याय और इन्साफ का ख्याल रखें।

10-इन्सानी बराबरी :-
इस्लाम न सिर्फ यह कि किसी रंग व नस्ल के भेद-भाव के बगैर तमाम इन्सानों के बीच बराबरी को मानता हैं, बल्कि उसे एक महत्वपूर्ण सत्य नियम करार देता हैं। कुरआन में अल्लाह ने फरमाया हैं कि ‘‘ ऐ इन्सानों! हम ने तुम को एक मां और एक बाप से पैदा किया।’’ दूसरे शब्दों में, इसका मतलब यह हुआ कि तमाम इन्सान अस्ल में भार्इ-भार्इ हैं, एक ही मां और एक ही बाप की औलाद हैं। ‘‘ और हमने तुम को कौमों और कबीलों में बांट दिया, ताकि तुम एक दूसरे को पहचानों। ‘‘(49:13) यानी कौमों और कबीलो में यह तक्सीम पहचान के लिए हैं। इसलिए हैं कि एक कबीलों या एक कौम के लोग आपस मे एक दूसरे से परिचित हो और आपस मे सहयोग कर सके। यह इसलिए नही हैं कि एक कौम दूसरी कौम पर बड़ार्इ जताये और उसके साथ घमण्ड से पेश आये, उसको कमजोर और नीचा समझे और उसके अधिकारों पर डाके मारे। ‘‘ हकीकत में तुम में इज्जत वाला वह हैं, जो तुम में सब से ज्यादा खुदा से डरने वाला है।’’(49:13) यानी इन्सान पर इन्सान की बड़ार्इ सिर्फ पाक़ीजा किरदार और अच्छे आचरण की बिना पर हैं, न कि रंग व नस्ल जुबान या वतन की बिना पर। और यह बड़ार्इ भी इस गरज के लिए नही हैं कि अच्छे किरदार और आचरण के लोग दूसरे इन्सानो पर अपनी बड़ार्इ जतायें, क्योकि बड़ार्इ जताना स्वंय मे एक बुरार्इ हैं, जिस को कोर्इ धर्म परायण और परहेजगार आदमी नही कर सकता और यह इस गरज के लिए भी नही हैं कि नेक आदमी के अधिकार बुरे आदमियों के अधिकारों से बढ़कर हो, या उसके अधिकार उनसे ज्यादा हों, क्योकि यह इन्सानी बराबरी के खिलाफ हैं, जिसको इस आदत के शुरू में नियम के तौर पर बयान किया गया हैं। यह बड़ार्इ और इज्जत अस्ल में इस वजह से हैं कि नेकी और भलार्इ नैतिक-दृष्टि से बुरार्इ के मुकाबले में बहरहाल श्रेष्ठ हैं। इसी बात को अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने एक हदीस में बयान फरमाया हैं कि-
        ‘‘ किसी अरबी को गै़र-अरबी पर कोर्इ बड़ार्इ नही हैं, न गै़र-अरबी पर कोर्इ बड़ार्इ हैं। न गोरे को काले पर और न काले को गोरे पर कोर्इ बड़ार्इ हैं। तुम सब आदम ‘‘(अलैहि0) की औलाद हो और आदम मिट्टी से पैदा हुए थे।’’

इस तरह इस्लाम ने तमाम मानव-जाति में बराबर कायम की और रंग, नस्ल, भाषा और राष्ट्र की बिना पर सारे भेद-भावों की जड़ काट दी। इस्लाम के नजदीक यह हक़ इन्सान होने की हैसियत से हासिल हैं कि उसके साथ उसकी खाल के रंग या उसकी पैदाइश की जगह या उसकी जन्म देने वाली नस्ल व कौम की बिना पर कोर्इ भेद-भाव न बरता जाये। उसे दूसरे के मुकाबले में नीच न ठहराया जाये। और उसके हूकूक दूसरो से कमतर न रखे जायें। अमेरिका के अफ्रीकी नस्ल के लोगो का मशहूर लीडर ‘मैलकम इक्स’ जो काली नस्ल के बाशिन्दों की हिमायत मे सफेद नस्ल वालों के खिलाफ सख्त कशमकश करता रहा था, मुसलमान होने के बाद जब हज के लिए गया और वहॉ उसने देखा कि एशिया, अफ्रीका, यूरूप, अमेरिका गरज हर जगह के और हर रंग व नस्ल के मुसलमान एक ही लिबास में एक खुदा के घर की तरफ चले जा रहे हैं, एक ही घर का तवाफ कर रहे हैं, एक ही साथ नमाज पढ़ रहे हैं और उनमें किसी तरह का भेद नही हैं तो वह पुकार उठा कि यह हैं रंग और नस्ल के मसले का हल, न कि वह जो हम अमेरिका में अब तक करते रहे हैं। आज खुद गैर-मुस्लिम विचारक भी, जो अंधे भेद-भाव और तास्सुब में ग्रस्त नही हैं, यह मानते हैं कि इस मसले को जिस कामियाबी के साथ इस्लाम ने हल किया हैं, कोर्इ दूसरा मजहब और तरीका हल नही कर सका हैं।

11-भलार्इ के कामो मे हर एक से सहयोग और बुरार्इ में किसी से सहयोग नहीं:-
इस्लाम ने एक अहम उसूल यह पेश किया है कि ‘‘नेकी और परहेजगारी में सहयोग करो। बदी और गुनाह के मामले में सहयोग न करों।’’ (5:2)
इस के माने यह है कि जो आदमी भलार्इ और खुदा तरसी का काम करें, यह देखे बगैर कि वह उत्तर का रहने वाला हो या दक्षिण का, यह हक रखता हैं कि हम उसमें सहयोग करेंगे। इसके विपरीत जो आदमी बदी और ज्यादती का काम करें, चाहे वह हमारा करीबी या रिश्तेदार ही क्यों न हो, उसका न यह हक हैं कि नस्ल व वतन या भाषा और कौमियत के नाम पर वह हमारा सहयोग मांगे ,न उसे हम से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि हम उस से सहयोग करेंगे। न हमारे लिए यह जायज हैं कि ऐसे किसी काम मे उसके साथ सहयोग करें। बदकार हमारा भार्इ ही क्यों न हो, हमारा और उसका कोर्इ साथ नही हैं। नेकी का काम करने वाला चाहे हम से कोर्इ रिश्ता न रखता हो, हम उसके साथी और मददगार हैं, या कम से कम खैर ख्वाह और शुभचिंतक तो जरूर ही हैं।

अल्लाह पाक मुझे ओर तमाम मुसलिम भाइयो को अमल की तौफीक इनायत फरमाये!
"आमीन या रब"

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