Sunday, 23 August 2015

इस्लाम के पाँच स्तंभ!

1:-:- तौहीद (एकेश्वरवाद) :-
अल्लाह और बंदे के बीच पैगम्बर को मार्गदर्शक मानता हैं। इस्लाम पुरोहितवाद को स्वीकार नही करता। वह किसी साकार सत्ता को उपासना का आधार नही बनाता जिसको मनुष्य अध्यात्मिक चिंतन के क्षणों में आराध्य की भांति बसाकर अपना सारा ध्यान शक्ति उस पर केंद्रित कर दें और उसमें तन्मय हो जाये। इसमें चित्र या मूर्ति जैसे किसी माध्यम की आवश्यकता नही हैं। ‘इस्लाम एक ऐसा दीन है जो विचारों की पवित्रता, चिंतन की ऊॅंचार्इ, संकल्प और इच्छा की निर्मलता, र्इश्वर के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं से विरचित, कर्मनिष्ठा और विश्वास के उस धरातल पर स्थित है कि उससे मानदण्ड और ऊॅंचा धरातल सोचा नही जा सकता।1

और तुम्हारा अल्लाह के सिवा न कोर्इ संरक्षक मित्र हैं और न सहायक।
                                -2 :सूर-ए-अल-बकरा : 107।

वही तो हैं जिसने तुम्हारे लिये धरती की सारी वस्तुये उत्पन्न की। फिर  अत्यन्त उदार, क्षमाशील , करूणामय और कृपाशील हैं।वह सर्वशक्तिमान शासक, स्रष्टा,बन्दों के लिए जीवन की सुख-सुविधाए प्रदान करने वाला, और एक हैं।उसके अतिरिक्त कोर्इ उपास्य नहीं है। ‘ला इलाह इल्लल्लाहु मुहम्मदुर्ररसूलुल्लाह (नही हैं कोर्इ खुदा मगर अल्लाह, मुहम्मद अल्लाह के रसूल है।) तौहीद की आधारशिला हैं। यही मुसलमानों के ‘दीन’ का मूलमन्त्र हैं। इस्लाम में तौहीद को छोड़ कर शिर्क एवं बहुदेववाद को स्वीकार करना वर्जित है। शिर्क और अनेकेश्वरवाद मनुष्यों की कल्पनामात्र के द्योतक हैं। शिर्क के कारण मनुष्य का ध्यान र्इश्वर के सम्बन्ध मे दुर्बल हो जाता हैं। अल्लाह और बन्दे का रिश्ता टूट जाता हैं। इसलिए इस्लाम मे शिर्क को बहुत बड़ा गुनाह (पाप) माना गया हैं।

मेरे बन्दों को सूचना दे दो कि मै बड़ा ही क्षमाशील और दया करने वाला हू।
-15: सूर-ए-अल-हिज : 48।

‘जिन लोगो ने ‘कुफ्र’ किया ‘किताब वाले’ हो या ‘मुशरिक (बहुदेववादी) हों, कोर्इ नही चाहता कि तुम्हारे ‘रब’ की ओर से तुम पर कोर्इ भलार्इ उतरे। और अल्लाह जिसे चाहता है। अपनी दयालुता के लिए खास कर लेता हैं और अल्लाह बड़ा अनुग्रह वाला हैं।             -2 : सूर-ए-अल-बकरा  105।

आकाश और धरती और जो कुछ उनके बीच हैं सबका राज्य अल्लाह ही के लिए हैं और उसे हर चीज की सामथ्र्य प्राप्त हैं। -5 : सूर-ए-अल-मार्इदा : 120।

वह आकाशों और धरती जैसी अनोखी नर्इ चीजों का बनाने वाला हैं। जब वह किसी बात का निर्णय करता हैं तो बस उसके लिए कह देता हैं-हो जा, तो वह हो जाती हैं।     -2 : सूर-ए-अल-बकरा : 117।

सब प्रशंसा अल्लाह के लिए हैं, जो सारे संसार का ‘रब’ हैं।
                               -1 : सूर-ए-अल-फातिहा

वही जिसने तुम्हारे लिए धरती को बिछौना और आकाश को छत बनाया। आकाश की ओर मे पानी उतारा और उसके द्वारा तुम्हारी रोजी के लिए हर तरह के खाद्य पदार्थ पैदा किए। तो जब तुम जानते हो तो अल्लाह के समवर्ती न बनाओं।
यदि इन दिनों (आकाश और धरती) में अल्लाह के सिवा और दूसरे ‘इलाह’ (पूज्य) भी होते, तो दोनो की व्यवस्था बिगड़ जाती । तो अल्लाह की महिमा के जो राजसिंहासन का ‘रब’ हैं प्रतिकूल हैं जो गुण ये बयान करते हैं।           
-21 : सूर -ए-अल-अंबिया : 22।
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2:-:- नमाज:-
नमाज इस्लाम की रीढ़, दीन का स्तम्भ, मोक्ष की शर्त, र्इमान की रक्षक और पवित्रता की नीव हैं। दिन मे पॉच बार नमाज पढ़ने का आदेश हैं। यह निश्चित समय में ‘अल्लाह’ का स्मरण हैं। इस व्यवस्था का पालन करते हुए मुसलमान पॉच बार खुदा के सामने उपस्थित हो पाप-कर्म से बचने की प्रार्थना और सच्चार्इ के मार्ग पर अग्रसर होने की सामथ्र्य संचित करता हैं। यह सफलता की कुन्जी हैं। र्इश्वर की ‘इबादत’ का विधान हैं। नमाज प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह स्वतन्त्रता हो या दास,सब पर फर्ज है!

1.फज्र (सूर्योदय से पहले)
2.जहर (मध्यान्ह के पश्चात)
3.अस्र (अपरान्ह के पश्चात)
4.मगरिब (सूर्यास्त होने पर)
5.इशा (रात्रि के प्रथम प्रहर में)

फिर जब तुम नमाज पूरी कर चुको, तो खड़े, बैठे और लेटे हर समय अल्लाह को याद करो। फिर जब तुम्हे इत्मीनान हो जाए, तो पूरी नमाज  ‘कायम’ करो। निस्संन्देह र्इमान वालों पर समय की पाबन्दी के साथ नमाज अदा करनी अनिवार्य हैं।  4 : सूर-ए-अन निसा : 103

सफल हो गया वह जिसने अपने को संवारा और अपने ‘रब’ के नाम का स्मरण किया तो नमाज पढ़ी।                              87 : सूर-ए-अल-आला : 14, 15 ।

निस्सन्देह मैं अल्लाह हू। मेरे सिवा कोर्इ ‘इलाह’ नहीं। अत: तू मेरी इबादत कर और मेरी याद के लिए नमाज कायम कर।         20 : सूर-ए-ताहा : 14।

धनवान हो या दरिद्र, रोगी हो या निरोग, यात्री हो या स्थायी रूप से रहने वाला सब पर प्रत्येक परिस्थिति मे अनिवार्य हैं। कोर्इ भी वयस्क व्यक्ति किसी भी स्थिति मे इससे मुक्त नही हो सकता। विशेष परिस्थितियों में ‘कजा’ द्वारा नमाज पूरी की जा सकती हैं। जकात, रोजा, हज्ज के सम्बन्ध मे कुछ शर्तो के उपरान्त छूट मिल जाती हैं। या उसमें कुछ रियायत की आज्ञा हैं, किन्तु नमाज के लिए ऐसी कोर्इ गुंजाइश नही हैं। यहा तक कि मैदान-ए-जंग मे भी नमाज फर्ज हैं।

नमाज ऐसा अमल हैं जिसमें शरीर, बुद्धि और हृदय सम्मिलित होते हैं और इन तीनों में दर्शन और विवेक का सुन्दर सामंजस्य विद्यमान होता हैं। शरीर के हिस्से में कयाम, (खड़ा होना,) रूकूअ (घुटने पर हाथ रखकर झुकना) और सजदा (जमीन पर सर टेकता) आया हैं। जिब्हा के हिस्से मे तिलावत  (कुरआन शरीफ की आयतें पढ़ना) और तस्बीह (र्इश्वर की महानता का वर्णन करना) आर्इ हैं। बुद्धि के हिस्से में चिंतन और हृदय के हिस्से मे र्इश्वर के प्रति तन्मयता और भक्ति भाव से हृदय का द्रवित होना आया हैं। दिन मे पॉच बार की नमाज के अतिरिक्त र्इद, बकरीद, सूर्य या चन्द्र ग्रहण, विपत्ति, मरण आदि के समय भी नमाज कायम की जाती हैं। रमजान के महीने में तरावीह की नमाज पढ़ी जाती हैं। हजरत मुहम्मद सल्ल0 ने कहा हैं - सबसे पहली चीज जिसका कियामत के रोज बंदे से हिसाब लिया जाएगा वह नमाज हैं। अगर यह ठीक रही तो वह कामयाब हुआ और अगर यह खराब निकली तो नाकाम हुआ। अगर उसके फराइज मे कुछ कमी नजर आएगी तो अल्लाह तआला कहेगा कि देखों मेरे बन्दे के नाम-ए-आमाल में कुछ नफली नमाजे हैं। फिर उससे फराइज की कमी को दूर कर दिया जायेगा और बाकी आमाल के साथ भी यही मामला होगा।

इस प्रकार इस्लाम में नमाज की महत्ता अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा अधिक हैं।
            परिस्थितिवश यदि नमाज का निर्धारित समय व्यतीत हो जाये, तो इस्लाम में ‘कजा’ नमाज पढ़ने का आदेश दिया गया है।
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3:-:- रोजा:-
मनुष्य र्इश्वर की विलक्षण रचना हैं। यह शरीर और आत्मा का समन्वित रूप हैं। यदि आत्मा का प्रभाव शरीर की अपेक्षा अधिक हुआ तो मनुष्य सांसारिक जीवन से कट कर भगवद्भक्ति मे लीन हो जाता है और यदि शरीर को आत्मा की तुलना में अधिक महत्व दिया जाये तो मनुष्य ऐश्वर्य प्रेमी बन जाता हैं। अत: इस्लाम ने मनुष्य को इस दलदल से बचाने के लिए ‘रमजान’ माह के रोजे अनिवार्य कर दिए हैं। कुरआन शरीफ में मुसलमानों पर ‘रोजा’ फर्ज किया जाता गया हैं!
       इसका उद्देश्य मनुष्य के आध्यात्मिक और नैतिक विकास के साथ हृदय और आत्मा की शुद्धि हैं। यह मनुष्य को धर्मपरायण और संयमी बनाता हैं। ‘रोजे’ की स्थिति में वह बहुत-सी बुराइयों और अवज्ञाओं से बच जाता हैं। हजरत मुहम्मद सल्ल0 की हदीस के अनुसार रोजा (जीवन संघर्ष में) एक ढाल हैं।
सूर्योदय से आधा घंटा पूर्व ‘सहर’ के समय से सूर्यास्त तक अत्र जल आदि त्याज्य हैं। इस स्थिति में पांच वक्त की नमाज के अतिरिक्त ध्यान, ज्ञान और कुरआन की तिलावत पर विशेष बल दिया गया हैं। इस प्रकार शरीर और हृदय को विभिन्न प्रकार की बुराइयों से मुक्त रखने का विधान हैं। सूर्यास्त होने पर रोजा खोलते या ‘इफतार’ करते हैं।
प्रत्येक वयस्क पर रोजा फर्ज हैं। विशेष परिस्थितियों में धार्मिक शर्तो के साथ ‘रोजे’ के स्थान पर अन्य अनुष्ठानों का आदेश दिया गया हैं, जिनकी पूर्ति के उपरान्त मनुष्य अपने ‘फर्ज’ से ऋण हो सकता हैं।

हे र्इमान वालों! तुम पर रोजा फर्ज किया गया हैं, जिस तरह तुमसे पहले के लोगो पर फर्ज किया गया था, ताकि तुम (अल्लाह का) डर रखने वाले बन जाओं।’    -2 : सूर-ए-अल बकरा 18
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4:-:-ज़कात:-
इस विश्व मे मनुष्य की सुख-सुविधाओं के लिए र्इश्वर ने विभिन्न प्रकार की वस्तुएं निर्मित की हैं। विश्व की सम्पूर्ण वस्तुएं केवल मुट्ठी भर लोगो के अधिकार मे न रहे इसलिए उसने ऐसे नियम बना दिए हैं जिनका पालन करते हुए प्रत्येक मनुष्य आवश्यक और जीवनोपयोगी वस्तुओं को दूसरों तक पहुंचा सकें। यह विधि मनुष्यों मे परस्पर-प्रेम और त्याग की भावना को बल प्रदान करती हैं। इसके लिए इस्लाम मे जकात खुम्स,-खैरात और सदके का विधान हैं। इसके द्वारा मनुष्य का इहलोक और परलोक दोनों मे उद्धार होता हैं। इनमें से खैर-खैरात नेकी की अलामत होते हुए भी अनिवार्य नही हैं, किन्तु कुरआन में धन-सम्पत्ति पर ख्म्स (5वें हिस्से) और जकात (40वें हिस्से) की अनिवार्यता घोषित की गर्इ हैं।

वर्ष में एक बार ‘जकात’ देना आर्थिक दृष्टि से सम्पत्र (साहिबे निसाब) मुसलमान के लिए ‘फर्ज’ हैं। इसकी मात्रा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं (कृषि और उपवन, पशु, बहुमूल्य, वस्तुएं, व्यापार, नौकरी आदि)पर निर्घारित कर दी गर्इ हैं। कृषि और उपवन से सम्बन्धित जकात उत्पत्ति के उपरांत दी जाती हैं। अचानक प्राप्त होने वाले लाभ पर वर्ष व्यतीत होने की प्रतीक्षा किए बिना तुरन्त खुम्स अर्थात पांचवा हिस्सा देना आवश्यक हैं। जिस उपलब्धि के लिए मनुष्य स्वंय परिश्रम करता हैं

‘जो नमाज कायम करते और ‘जकात’ देते हैं और वे ऐसे हैं जो कि आखिरत पर विश्वास करते हैं।        -27 : सूर-ए- अन-नम्ल : 3।

मेनेे उन्हें जो कुछ दिया हैं उसमें से छिपाकर और खुले रूप में खर्च करें, इससे पहले  कि वह दिन आए जिसमें न कोर्इ सौदा होगा और न कोर्इ मित्रता होगी।                   -14 : सूर-ए- इब्राहीम : 31।

और यदि तुम खुले तौर पर ‘सदका’ दो तो यह भी अच्छी बात हैं और यदि उसे छिपा कर गरीबों को दो, तो यह तुम्हारे लिए  ज्यादा अच्छा हैं और वह तुम्हारी कितनी ही बुराइयों को दूर कर देगा। और अल्लाह जो कुछ तुम करते हो उसकी खबर रखता हैं। -2 : सूर-ए-अल-बकरा : 271।

‘है नबी! तुम उनके मालों में से ‘सदका’ लेकर उन्हें पाक करो और उनकी आत्मा को विकसित करो तथा उनके लिए दुआ करो! निस्संदेह तुम्हारी दुआ उनके लिए संतोष-निधि हैं। अल्लाह सुनने और जानने वाला है।
-9 : सूर-ए-अत-तौबा : 103।

‘तुम नेकी और वफादारी के दर्जे को नही पहुंच सकते जब तक कि अपनी उन चीजों में से खर्च न करों जो तुम्हे प्रिय हैं और जो चीज भी तुम खर्च करोगे, अल्लाह उसका जानने वाला हैं।    -3 : सूर-ए-आले इमरान : 92।
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5:-:-हज:-
‘हज्ज’ का अर्थ हैं तीर्थ-दर्शन करना। ‘हज्ज’ एक ‘इबादत’ हैं, जिस में मनुष्य अल्लाह के घर अर्थात काबा के दर्शन करने की इच्छा से मक्का जाता हैं। ‘हज्ज-ए-बैत-उल्लाह’ र्इश्वर के प्रति अपार श्रद्धा, प्रेम, बंदगी और र्इश-प्रशंसा का द्योतक हैं। काबा अल्लाह की इबादत का केन्द्र और शांति का स्थान हैं।परिस्थिति, अर्थ और स्वास्थ्य की दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति पर हज्ज फर्ज है। कुरआन में हज्ज के महत्व की व्यापक चर्चा की गर्इ हैं।काबा दर्शन से अल्लाह के स्मरण के साथ बहुत सी विस्मृत घटनाएं जीवन के साथ पुन: जुड़ जाती हैं। यह अल्लाह की बहुमूल्य देन, धरोहर और निशानी-तौहीद और रसूलों के जिहाद और सब्र-का द्योतक हैं। हज्ज इस्लामी राष्ट्रीयता की विजय का प्रतीक हैं जहां सारे भेद मिटकर केवल एकता शेष रहती हैं। यहां पहुच कर समस्त इस्लामी जातियां अपनी जातीय और राष्ट्रीय वेशभूषा को जो उनकी विशेष पहचान हैं, जिससे जातिगत विषमता उत्पन्न होती हैं त्याग कर एक सा लिबास घारण करती हैं जिसे ‘अहराम’ कहा जाता हैं सब मिलकर बड़ी नम्रता और विनय के साथ भाषा मे एक भाषा मे एक नारा लगाते हैं:-
‘अल्लाहुम्मा लब्बैक-लब्बैक ला शरीक लका लब्बैक-इन्नल हम्द वन्नेमता लका वल मुल्क ला शरीक लका।’
(हाजिर हूं, ऐ अल्लाह! मै तेरे हुजूर हू, तेरा कोर्इ शरीक नहीं। मै तेरे हुजूर हाजिर हू, निश्चय ही प्रशंसा तेरे ही लिए हैं। सारे उपकार तेरे ही हैं। बादशाही सर्वथा तेरी हैं। तेरा कोर्इ शरीक नही।)

अस्तु, उक्त पांच धार्मिक अनुष्ठानों पर इस्लाम की बुनियाद निर्भर हैं। इसके व्यक्ति अंतजंगत और बहिजंगत दोनो मे सन्तुलन स्थापित करने की अपूर्व क्षमता उत्पन्न कर लेता हैं

और याद करो जब कि हमने इस पर (काबा) को लोगो के लिये केन्द्र और शांति स्थल बनाया और हुक्म दिया कि इब्राहीम के वासस्थान को ‘नमाज’ की एक जगह बनाओं। इब्राहीम और इस्मार्इल को जिम्मेदार बनाया कि मेरे घर का ‘तवाफ’ (परिक्रमा) और ‘एतकाफ’ और रूकूअ ‘सजदा’ करने वालों के लिए पाक रखो।
            -2 : सूर-ए-अल-बकरा : 125।

निस्संदेह पहला घर जो लोगो के लिए बनाया गया वही हैं जो मक्का में हैं, सारे संसार के लिये बरकत और मार्ग दर्शन का केन्द्र हैं। वहां स्पष्ट निशानियां हैं, इब्राहीम का वासस्थान हैं, जिसने उसमें प्रवेश किया वह सुरक्षित हो गया और लोगो पर अल्लाह का हक हैं कि जो वहां तक वहुंचने की सामथ्र्य रखते हैं उस घर का हज्ज करें और जिसने कुफ्र किया तो अल्लाह सारे संसार से बे-परवाह हैं। -3 : सूर-ए-आले इमरान : 96, 97।

और लोगो को हज्ज के लिए पुकार दो कि वे प्रत्येक गहरे मार्गो से पैदल और हल्के शरीर की (छरहरी) उटनियों पर तेरे पास आएं, ताकि वे अपने फायदों को देखे (जो यहां उनके लिये रखे गये हैं) और कुछ मालूम (निश्चित) दिनों मे उन मवेशी-चौपायों पर अल्लाह का नाम ले जो उसने उन्हें दिये हैं। फिर उस मे से स्वंय खाओ और तंगहाल मोहताज को भी खिलाओं। फिर अपना मैल-कुचैल दूर करें। अपनी मन्नतों को पूरा करें और इस पुरातन घर (काबा) का ‘तवाफ’ (परिक्रमा) करें।    -22 : सूर-ए-अल-हज्ज् : 27, 28, 29।

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