Sunday, 23 August 2015

इस्लाम की राजनीतिक व्यवस्था!

इस्लामी राजनीतिक व्यवस्था की बुनियाद तीन सिद्धान्तों पर रखी गर्इ है- तौहीद, रिसालत और खिलाफत ।
इन सिद्धान्तो को भली-भांति समझे बिना इस्लामी राजनीति की विस्तुत व्यवस्था को समझना कठिन है। इसलिए सर्वप्रथम इन्हीं की संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत हैं।

तौहीद (एकेश्वरवाद) का अर्थ यह हैं कि अल्लाह इस संसार और इसमें बसने वालों का स्रष्टा, पालक और स्वामी हैं। सत्ता और शासन उसी का हैं। वही हुक्म देने और मना करने का हक रखता हैं। आज्ञापालन तथा पूर्णसमर्पण केवल उसी के लिए हैं। हमारा यह अस्तित्व, हमारे ये शारीरिक अंग एवं शक्तियां जिनसे हम काम लेते है, हमारे उपयोग की वस्तुएं तथा उनसे संबंधित हमारे अधिकार जो हमे संसार की सभी चीजों पर प्राप्त हैं और स्वंय वे चीजें जिन पर हमारा अधिकार हैं, उनमें से कोर्इ चीज भी न हमारी पैदा की हुर्इ है और न हमने उसे प्राप्त किया हैं, सब अल्लाह द्वारा ही पैदा की गर्इ हैं और उसी ने हमे सब कुछ प्रदान किया हैं, जिसमें अन्य कोर्इ हस्ती भागीदार नही हैं। इसलिए अपने अस्तित्व का उद्देश्य और अपनी क्षमताओं का प्रयोजन और अपने अधिकारों का सीमा-निर्धारण करना न तो हमारा अपना कार्य हैं और न किसी अन्य व्यक्ति को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार हैं, यह केवल उस र्इश्वर का कार्य हैं जिसने हमको इन शक्तियों तथा अधिकारों के साथ पैदा किया और दुनिया की बहुत-सी चीजे हमारे अधिकार में दी हैं। यह सिद्धान्त मानवीय प्रभुसत्ता (Sovereignty) को पूर्ण रूपेण नकार देता हैं। एक इन्सान हो या एक परिवार, एक वर्ग हो या एक समुदाय अथवा पूरी दुनिया के लोग हो किसी को प्रभुसत्ता का अधिकार नहीं। हाकिम (सम्प्रभु) केवल अल्लाह हैं, उसी का हुक्म ‘कानून’ हैं।
रिसालत (र्इशदूतत्व) उस माध्यम का नाम है जिसके द्वारा र्इश्वरीय विधान मानव तक पहुंचता हैं। इस माध्यम से हमे दो चीजें मिलती हैं- ‘एक किताब’, जिसमें स्वयं र्इश्वर ने अपना कानून बताया हैं; दूसरे किताब की प्रमाणिक एवं विश्वसनीय व्याख्या जो र्इशदूत ने र्इश्वर के प्रतिनिधि के रूप में अपनी कथनी और करनी के द्वारा प्रस्तुत की हैं। र्इशग्रन्थ मे उन सभी नियमों तथा सिद्धान्तों का उल्लेख कर दिया गया हैं जिन पर मानवीय जीवन-व्यवस्था आधारित होनी चाहिए और र्इशदूत (रसूल) ने किताब के अनुकूल व्यवहारिक रूप में एक जीवन-व्यवस्था बनाकर, चलाकर और उसके आवश्यक विवरण बताकर हमारे लिए एक नमूना स्थापित कर दिया हैं। इन्ही दो चीजो के समूह का नाम इस्लामी पारिभाषिक शब्दावली में ‘शरीअत’ हैं और यही वह आधारभूत संविधान हैं जिस पर इस्लामी राज्य की स्थापना होती हैं।

अब ‘खिलाफत’ को लीजिए। यह शब्द अरबी भाषा में प्रतिनिधित्व के लिए बोला जाता हैं। इस्लामी दृष्टिकोण से दुनिया में इन्सान की हैसियत यह हैं कि वह धरती पर अल्लाह का प्रतिनिधि हैं अर्थात उसके राज्य में उसके दिए अधिकारों का प्रयोग करता हैं। आप जब किसी व्यक्ति को अपनी सम्पत्ति का प्रबन्ध सौंपते हैं तो निश्चित रूप से आपके सामने चार बाते होती हैं-एक यह कि सम्पत्ति के वास्तविक स्वामी आप स्वंय हैं न कि वह प्रबन्धक व्यक्ति; दूसरे यह कि उस व्यक्ति को आपकी जायदाद मे आपके निर्देशानुसार कार्य करना चाहिए; तीसरे यह कि उसे अपने अधिकारों को आपके द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्दर ही प्रयोग करना चाहिए; चौथे यह कि आपकी जायदाद में उसे आपकी इच्छा और मन्तव्य को पूरा करना होगा न कि अपना। ये चार शर्ते प्रतिनिधत्व की अवधारणा में इस प्रकार शामिल है कि नायब (प्रतिनिधि) इन चार शर्तो को पूरा न करे तो आप कहेंगे कि प्रतिनिधित्व की सीमाओं को लांघ गया हैं और उसने वह अनुबंध तोड़ दिया है जो प्रतिनिधित्व के मूल अर्थ में सन्निहित था। ठीक इन्ही अर्थो में इस्लाम इन्सान को खुदा का खलीफा ठहराता है और इस खिलाफत की अवधारणा। में यही चारो शर्ते सम्मिलित हैं। इस राजनीतिक विचारधारा के आधार पर जो राज्य बनेगा वह वास्तव में, र्इश्वर की संप्रभुता (Sovereignty) के अंतर्गत इन्सानी खिलाफत होगी, जिसे खुदा के मुल्क (राज्य) में उसके निर्देशानुसार निर्धारित सीमाओ के भीतर कार्य करके उसकी इच्छा पूरी करनी होगी।

खिलाफत की इस व्याख्या के संबंध में इतनी बात और समझ लीजिए कि इस्लाम की राजनैतिक विचारधारा किसी व्यक्ति या परिवार या वर्ग को खलीफा घोषित नही करती बल्कि पूरे समाज को खिलाफत (प्रतिनिधित्व) का पद सौंपती हैं जो तौहीद (एकेश्वरवाद) और रिसालत के आधारभूत सिद्धान्तो को स्वीकार करके (प्रतिनिधित्व की शर्ते पूरी करने को तैयार हो। ऐसा समाज सामूहिक रूप से खिलाफत के योग्य हैं और यह खिलाफत उसके प्रत्येक सदस्य तक पहुंचती हैं। यही वह बिन्दू हैं जहां इस्लाम में लोकतन्त्र की शुरूआत होती हैं। इस्लामी समाज का प्रत्येक व्यक्ति खिलाफत के अधिकार रखता हैं। ये अधिकार सबको समान रूप से प्राप्त हैं जिसके संबंध में किसी को दूसरे पर वरीयता नही दी जा सकती और न ही किसी को इनसे वंचित किया जा सकता हैं। राज्य का प्रशासन चलाने के लिए जो हूकूमत बनार्इ जाएगी वह इन्ही व्यक्तियों की सहमति से बनेगी। यही लोग अपने प्रतिनिधित्व का एक भाग हूकूमत को सौंपेंगे। उसके बनने में उनकी राय शामिल होगी और उनके परामर्श ही से वह चलेगी। जो उन लोगो का विश्वास प्राप्त करेगा वही उनकी ओर से खिलाफत के कर्तव्य निभाएगा और जो उनका विश्वास खो देगा उसे सत्ता के पद से हटना पड़ेगा। इस दृष्टि से इस्लामी लोकतन्त्र एक पूर्ण लोकतन्त्र हैं, उतना ही पूर्ण जितना कोर्इ लोकतन्त्र हो सकता हैं। तथापि जो चीज इस्लामी लोकतन्त्र को पाशच्य्तन्त्र लोकतन्त्र से अलग करती हैं वह यह हैं कि पश्चिम का राजनीतिक दृष्टिकोण जनता की प्रभुसत्ता (Sovereignty of people) को मानती हैं जबकि इस्लाम लोकतन्त्रीय खिलाफत को मानता हैं। वहां जनता स्वयं संप्रभु हैं और संप्रभुता र्इश्वर की हैं और जनता उसकी खलीफा और प्रतिनिधि हैं। वहां लोग अपने लिए खुद शरीअत (कानून) बनाते है, यहां उन्हे उस शरीअत (कानून) का अनुपालन करना पड़ता हैं जिसको र्इश्वर ने अपने दूत के माध्यम से दिया हैं। वहॉं हुकूमत काम जनता की इच्छा की पूर्ति करना हैं, यहां हुकूमत और उसके बनाने वाले सबका काम अल्लाह की इच्छा पूरी करना होता हैं। संक्षेप में पश्चिम लोकतन्त्र एक निरंकुश खुदार्इ हैं जो अपनी शक्तियों और अधिकारों को निर्बाध प्रयोग करती हैं। इसके विपरीत इस्लामी लोकतंत्र कानून के प्रति पूर्ण समर्पित है जो अपने अधिकारों को र्इश्वरीय निर्देशानुसार सीमाओं के भीतर ही इस्तेमाल करती हैं।

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