Sunday, 23 August 2015

इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था!

इस्लाम पूर्ण जीवन-व्यवस्था है। इस ने मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को उत्तम से अतिउत्तम बनाने एवं परेशानियों और मुसीबतों से छुटकारा दिलाने के लिए ऐसे नियम और सिद्धांत प्रदान किए हैं कि लोक और परलोक के जीवन में अमन व शान्ति प्राप्त हो।
इस्लाम ने व्यक्ति के विश्वास, आचार, दृष्टिकोण, राजनैतिक आवश्यकताओं तथा पारिवारिक एवं आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ उसकी आजीविका-संबंधित आवश्यक आदेश भी प्रदान किए हैं। इन आदेशों की विशेषता यह है कि जीवन के समस्त पक्ष एक-दूसरे से जुड़कर संयोजित हो जाते हैं और मनुष्य को पूर्ण अमन व सलामती प्राप्त होती है।
इस्लाम की मूल-धारणा इस तथ्य पर आधारित है कि मानव का मालिक, हाकिम, स्वामी एक, और सिर्फ़ एक अल्लाह ही है । उसने हमें अक़्ल और सूझ-बूझ दी और यह स्वतंत्रता भी दी कि हम किसी तथ्य को स्वीकार करें या अस्वीकार। इसके साथ-साथ उसने हमें जीवन व्यतीत करने के साधन भी दिए। परलोक में वह हम से इसका हिसाब लेगा कि उसकी प्रदान की हुई इन नेमतों, अर्थात् जीवन-अधिकार की स्वतंत्रता और जीवन व्यतीत करने के साधनों का हम ने कैसे उपयोग किया। यदि यह काम उसकी इच्छानुसार हुआ तो स्वर्ग की प्राप्ति; नहीं तो नरक का ईंधन बनने का परिणाम इन्सानों के लिए है।
जीवन, और जीवन व्यतीत करने के साधनों को अल्लाह की इच्छानुसार उपयोग करने के लिए अल्लाह ने अपने रसूलों और किताबों का सिलसिला जारी किया जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) और कु़रआन पर ख़त्म हुआ और यह रहती दुनिया तक के लिए पथ-प्रदर्शक है।
इस्लाम में संसार-विरक्त हो जाना मना है। इसमें जीवन व्यतीत करने के साधनों से लाभ उठाना नापसन्दीदा नहीं है। केवल यह बात याद रखनी चाहिए कि हम वास्तव में किसी चीज़ के स्वामी नहीं हैं बल्कि वास्तविक स्वामी अल्लाह (ईश्वर) हैं। हमें समस्त साधनों को प्रयोग में लाने और इसमें अपने प्रयास को बढ़ोत्तरी करने के लिए वास्तविक स्वामी के आदेशों का, जो कि कु़रआन और मुहम्मद (सल्ल॰) की सुन्नत में मौजूद है, ध्यान रखना होगा। इन आदेशों के अन्तर्गत इन साधनों में जो भी बढ़ोत्तरी हो वह प्रशंसनीय है। इसी प्रकार, धन कमाना, उसमें बढ़ोत्तरी का प्रयास करना, उससे लाभ उठाना, उसे ख़र्च करना या उसे जमा करना बुरा नहीं है, बल्कि अच्छा है; केवल शर्त यह है कि अल्लाह और उसके रसूल के आदेश का पालन किया जाए।
इस्लाम के शिक्षानुसार समस्त मानव एक ही माता-पिता आदम एवं हव्वा (अलैहि॰) की संतान हैं इसलिए इनमें रंग, वंश, भाषा, प्रदेश, जाति, पेशा आदि के कारण कोई अन्तर या भेदभाव नहीं है। अपना जीवन व्यतीत करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से यह अवसर प्राप्त है कि किसी भी वैध कार्य को वह अपनी रुचि एवं पसन्द के अनुसार हासिल कर सकता है तथा धन एवं दूसरे साधनों को प्राप्त करने, उन्हें ख़र्च करने, बचत करने एवं धन में बढ़ोत्तरी के लिए कारोबार में लगाने का अधिकार रखता है। शासन और समाज का यह उत्तरदायित्व है कि वह अपने नागरिकों को समान अवसर प्रदान करे और यदि कोई दुष्कर्मी किसी के इस क़ानूनी अधिकार में रुकावट डाल रहा है तो उसे ऐसा न करने दे।
यह भी एक वास्तविकता है कि सभी इन्सानों के हालात, तथा उनकी शारीरिक एवं मानसिक अवस्था एक जैसी नहीं होती है। किसी की सूझ-बूझ अधिक है, किसी का शरीर बलवान है, कोई शहरी है, कोई ग्रामीण है, कोई स्वस्थ है, कोई रोगी है। रोज़गार हासिल होने के समान अवसर प्राप्त होने के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति समान जीविका प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए जीवन की दौड़ में सभी लोग एक साथ नहीं रह सकते। कोई बहुत आगे बढ़ जाएगा, कोई बहुत पीछे रह जाएगा। हो सकता है, कुछ लोगों के पास मौलिक आवश्यकताओं के लिए भी कोई साधन न रहे। इस्लाम ने ऐसे लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक ओर ज़कात, सदक़ात और वक़्फ़ जैसे दान एवं परोपकार के तरीक़ों की शिक्षा दी है, तो दूसरी ओर अनाथ बच्चों, विधवा नारियों, बूढ़ों और रोगियों, और दूसरे बेसहारा लोगों के साथ सद्व्यवहार के निर्देश दिए हैं।
इस्लाम ने अर्थव्यवस्था से संबंधित ऐसे नियम बनाए हैं कि जीवन व्यतीत करने के साधन इस तरह उपयोग में लाए जाएँ कि वह मानव समाज की भलाई और परोपकारिता का साधन बनें। इस सिलसिले में इस्लामी धर्म- विद्वानों ने कु़रआन और हदीस की शिक्षानुसार यह निर्देश दिए कि जो भी काम किया जाए उसका उद्देश्य व्यक्ति के ईमान, उसके जीवन, सूझ-बूझ, वंश और धन को सुरक्षित रखना हो।
जीविका के सिलसिले में इस्लामी शिक्षा कुछ चीज़ों को सख़्ती से अवैध ठहराती है। इन हराम चीज़ों में सर्वप्रथम सूद है अर्थात् किसी क़र्ज़ पर मूल से अधिक धन या किसी और प्रकार का लाभ प्राप्त करना। सूद न लिया जा सकता है, न दिया जा सकता है और न इसका कारोबार किया जा सकता है (कु़रआन, 2:275-76, 278-79; 3:130; 4:161, 30:39)। सूदी लेन-देन करने वालों के दस्तावेज़ तैयार करना भी वर्जित ठहराया गया।
दूसरी चीज़ें जो हराम हैं और जिन्हें अवैध ठहराया गया है वह हैं - जुआ, अनाज की क़ीमत बढ़ने के लिए उसे रोकना, रिश्वत, धोखा, जो चीज़ें अपने अधिकार में न हों उन्हें बेचना, अत्याचार, लेन-देन के मामले में महत्वपूर्ण जानकारी छिपाना, किसी की मजबूरी से लाभ उठाना, झूठी बोली बोल कर क़ीमत बढ़ाना आदि।
इस्लाम ने अवैध, अप्रशंसनीय एवं बुरी चीज़ों का विवरण स्पष्ट रूप से दे दिया है जो चीज़ें इस वर्जित तालिका में नहीं हैं, मानव उसके लिए स्वतंत्र है। वर्जित चीज़ों की यह सूची छोटी-सी है और इसके बाहर काम की एक पूरी दुनिया मौजूद है जिसमें मेहनत करके इन्सान अपनी आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है।
आमदनी हासिल करने के सिलसिले में इस्लामी सिद्धांत यह है कि वैध कार्यों द्वारा वैध तरीक़ों से धन कमाया जा सकता है। धन कमाने का कोई तरीक़ा या पेशा किसी परिवार, देश या जाति-बिरादरी के लिए विशेष नहीं है। हर व्यक्ति अपनी अवस्था, रुचि, क्षमता, कुशलता एवं उपलब्ध अवसर के अनुसार कोई भी काम कर सकता है। किसी अवैध कार्य के करने का अधिकार किसी को नहीं है, शराब और नशा की चीज़ें बनाना, अश्लीलता और देहव्यापार और नाच-गाने का पेशा, जुआ, लॉटरी, सट्टा, ऐसा काम जिसमें एक का लाभ दूसरे की हानि निश्चित हो, किसी की विवशता से लाभ उठाकर उसे परेशान किया जाना, और इस तरह के सभी काम जो मानव और मानव समाज के लिए हानिकारक हों वर्जित कर दिए गए हैं।
व्यक्ति, वैध तरीक़ों से हासिल किए हुए धन का स्वामी होता है। वह अपनी इच्छानुसार उसकी बचत कर सकता है या उसे ख़र्च कर सकता है। किन्तु धन को ख़र्च सिर्फ़ वहीं किया जा सकता है और उसी प्रकार किया जा सकता है जिसकी इस्लाम ने अनुमति दी है।
जिस तरह, अवैध तरीक़ों से धन कमाना वर्जित ठहराया गया है उसी तरह धन ख़र्च करने के समस्त अवैध तरीक़ों पर भी रोक लगा दी गई है। इस तरह धन को दिखावे में, और रंग-रेलियों में, जो कि इस्लाम की दृष्टि में अप्रशंसनीय हैं ख़र्च नहीं किया जा सकता, शराब नहीं पी जा सकती, अश्लीलता नहीं फैलाई जा सकती, जुआ और सट्टे में पैसे नहीं लगाए जा सकते। वैध और प्रशंसनीय तरीके से प्राप्त किया गया धन वैध और प्रशंसनीय तरीक़े से ही ख़र्च किया जा सकता है।
वैध तरीक़े से हासिल किए हुए धन को प्रशंसनीय तरीक़ों से ख़र्च करने के अलावा उनकी बचत भी की जा सकती है। इस तरह, बचत के धन से धन कमाने के लिए उसे कारोबार में भी लगाया जा सकता है। इस्लाम के आदेशानुसार बचत के धन में से ज़कात (अनिवार्य धन दान) एवं उश्र (फ़सल के उत्पाद का दसवाँ भाग) परोपकार, परहित, जन-सेवा व समाज-सेवा के कामों के लिए निकालने की व्यवस्था है। अर्थात् बचत के धन एवं व्यापारिक वस्तुओं पर ज़कात और खेतों की उपज पर ‘उश्र’ निकालना होगा।
धन के प्रति इस्लाम का दृष्टिकोण यह है कि धन का संचालन हो और वह कुछ हाथों में सिमट कर न रह जाए और समाज के अन्दर प्रवाहित रहे।
इस्लाम निर्देश देता है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसके धन, सम्पत्ति को उसके उत्तराधिकारियों में विभाजित कर दिया जाए ताकि पुरखों का धन पीढ़ियों तक कुछ ही हाथों में सिमट कर न रहे बल्कि उसका बड़े स्तर पर संचालन होता रहे।
इस तरह, इस्लाम ने अपनी आर्थिक व्यवस्था में वैध आमदनी, वैध ख़र्च, प्रशंसनीय तरीक़े से बचत और धन में बढ़ोत्तरी के लिए धन को कारोबार में लगाने; व्यक्ति के पास जमा धन व सम्पत्ति को उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में विभाजित होने; तथा परोपकार व समाज-सेवा में धन (व फ़सल का उत्पाद) ख़र्च करने की शिक्षाओं व नियमों द्वारा उत्तम मानव और उत्तम मानव-समाज के निर्माण का प्रावधान किया है। इस तरीक़े को अपना कर अपने पैदा करने वाले की इच्छानुसार जीवन व्यतीत कर, उसे प्रसन्न कर, सांसारिक जीवन में संतुष्टि एवं शान्ति और परलोक में सदा बाक़ी रहने वाली जन्नत का रास्ता दिखाया गया है।

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