इस्लाम के सिलसिले में इन दो लफ्जों 'फतावा' और 'जिहाद' का सबसे ज्यादा ग़लत इस्तेमाल हुआ है | इसके ज्यादा ज़िम्मेदार हम मुसलमान खुद ही हैं| हमने अपनी कौम के नीम हकीम और बिकाऊ मुल्लाओं को ना पहचान के उनका साथ दे के दूसरों को इस बात का मौक़ा दिया की वो इन दो लफ्जों जिहाद और फतावा का इस्तेमाल करके इस्लाम का मज़ाक बनाएं | इस्लाम को बदनाम करने के लिए जो साजिश की गयी उसमें "जिहाद" का इस्तेमाल सबसे ज्यादा हुआ है |
यहाँ आपको बताता चलूँ की यह आतंकवाद और आतंकवादी और तालिबान शब्द का इस्तेमाल पिछले कुछ सालों में सबसे ज्यादा हुआ| पाकिस्तान में जिया-उल-हक के समय में तालिबान का वजूद सामने आया |
एक सवाल आम इंसान के दिमाग में जरूर आएगा कि यह तालिबान या कट्टरपंथी पहले कहाँ थे और पहले क्यों नहीं इतने हमले किया करते थे ? जबकि इस्लाम को मुक़म्मल हुए आज 1436 साल हो चुके हैं |
जिस तरह दुनिया भर में कुछ इंसान किसी भी धर्म के हो बिक जाया करते हैं और अपने धर्म या वतन को नुकसान पहुँचाया करते हैं | ऐसे लोगों का ईमान सिर्फ पैसा हुआ करता है | इसी तरह मुसलमानों में भी कुछ मुल्ला हैं जो अपना ईमान बेच के पैसे और शोहरत के लालच में ऐसे फतवे दिया करते हैं जिनका इस्लाम के कानून से कुछ लेना देना नहीं हुआ करता |फतवे का आसान सा मतलब है हिदायत (निर्देश) | जब कोई मुश्किल मुसलमानों के पास आती है और वो जानना चाहता है की इस्लाम का इस बारे में क्या हुक्म है तो वो किसी इस्लाम के जानकार के पास जाता है और फतवा (निर्देश) लेता है |यह बात मुसलमानों को मालूम होनी चाहिए की इस्लाम में फतवा देने का हक उसी को हुआ करता है जिसके पास इस्लाम के कानून का मुकम्मल इल्म (ज्ञान) हो या यूं कह लें जो मुजतहिद हो और इस्लाम की बारीकियां समझता हो | ऐसे लोग दुनिया में बहुत ही कम हैं और हर मुसलमान को चाहिए की उनकी पहचान करे और इस्लामिक मसलों का हल उन्ही से निकलवाएं|
हर गली या हर जुमा मस्जिद के मौलवी या सऊदी बादशाहों ,अमीरों को यह हक नहीं की वो इस्लाम के मसलो में फतवे जारी किया करें! लेकिन अगर ऐसे लोग फतवा जारी किया करते हैं किसी जाती मकसद को पूरा करने के लिए तो मुसलमानों को चाहिए की उसे ना माने और मुजतहिद से राबता (संपर्क) करें | अगर मुसलमान इस बात को ध्यान में रखेंगे तो कभी गुमराह नहीं होंगे | और इस्लाम भी बदनाम न होगा |
दूसरी बात यह भी ध्यान देने वाली है की इस्लाम में ज़ोर और ज़बरदस्ती नहीं है | कौम के आलिम (ज्ञानी) मुल्ला और मुजतहिद हजरात को यह हक है कि जरूरत पड़ने पे फतवे जारी करें लेकिन उनको यह हक नहीं की उसे मनवाने के लिए कौम के लोगों पे ज़ोर ज़बरदस्ती करें |क्योंकि इस्लाम में जब्र नहीं बल्कि आज़ादी है | अल्लाह चाहता है की इंसान खुद अपनी मर्ज़ी से इस्लाम को कुबूल करते हुए उसके बताये कानून पे चले क्यूंकि अगर कोई ज़बरदस्ती इस्लाम को कुबूल करता है या उसके कानून को अपनाता है तो यह सही मायने में बंदगी नहीं हुई |
मिसाल के तौर पे इस्लाम में औरत के लिए ज़रूरी है की वोह मर्दों से पर्दा करे और अपने बदन (शरीर) की नुमाईश न करे | इस्लाम में ऐसा म्युज़िक जो मदहोश करदे सुनना और गाना मना है| इस्लाम में गैर अख्लाकी ताल्लुक (अनैतिक संबंधों) को बनाने पे सख्त सजा का प्रावधान है | इसी तरीके से माँ-बाप की इज्ज़त करना, पड़ोसियों की मदद करना वगैरह भी इस्लाम में बड़ी अहमियत रखता है | कौम को गुमराही से बचाने के लिए इस्लाम के रहबर मौलवी हजरात फतवे दे या बता सकते हैं लेकिन अगर कोई गुमराह है और उनको नहीं मानता तो इसकी सजा अल्लाह देगा कोई मुल्ला या इंसान आज के दौर में ज़ोर ज़बरदस्ती करके इसे मनवाने की जिद नहीं कर सकता | अल्लाह ने दुनिया भर के सभी इंसानो को समझने की ताकत दी। यानी हर इंसान को यह हक (अधिकार) दिया है कि वह सही या गलत रास्ते में से किसी एक रास्ते को अपना सकता है|
अगर अल्लाह लोगों को मजबूर करता तो फिर भले को भलाई का इनाम और बुरे को बुराई की सजा देना बेमायने (अर्थहीन) हो जाता | हाँ यह जरूर है की इस्लाम में गुमराह और न फरमानों का साथ देने की मनाही है क्यूंकि ऐसा करने पे उनके गुनाह में तुम भी शरीक माने जाओगे | अल्लाह ने इंसान को अक्ल-ए-सलीम (बुध्दि) जैसा तौहफा दिया जिसकी मदद से वह भले बुरे की पहचान कर सकता है और यह हर इंसान का फ़र्ज़ है की वो अपनी अक्ल का इस्तेमाल करते हुए इस्लाम को समझे और सही रहबर-आलिम को चुने |
यहाँ यह भी बताता चलूँ की इस्लाम इस बात पे ज्यादा जोर देता है की तुम जिस मुल्क (देश) में रहो वहाँ इस बात का ध्यान रखो कि तुम्हारा ईमान बचा रहे और तुम्हे अपने मजहब के वाजिबात पे चलने में कोई मुश्किल न हो |लेकिन जब किसी गुनाह (अपराध) की सजा का मसला आये तो अपने देश के कानून को मानो |जैसे इस्लाम में चोर की सजा कुछ मसलो में हाथ की उँगलियाँ काट देने का भी है या बलात्कार की सजा मौत भी है लेकिन आपके मुल्क (देश) का कानून अगर इसकी सजा केवल जेल भेजना तय करता है तो आप को इस सजा को ही मानना होगा |
इस्लाम के खिलाफ साजिशो में उल्टे-पुल्टे उट-पटाँग फतवे देने का बहुत ही अहम् रोल रहा है | इसकी दलील यह है की कोई इस बात पे फतावा नहीं देता के अपने वतन के प्रति इमानदार रहो वरना इस्लाम से ख़ारिज हो जाओगे |
कोई यह फतावा नहीं देता की अपने माँ-बाप की बेईज्ज़ती न करो वरना वाजिब ऐ क़त्ल हो जाओगे |
बस फतावा आपको मिलेगा जिहाद का क्यूंकि मुसलामो को दहशतगर्द साबित करना है! या फतावा मिलेगा औरतों के परदे पे क्यूंकि इस्लाम को ज़ालिम और औरतों पे ज़ुल्म करने वाला मज़हब करार देना है |
आज यह फतावे भी एक साजिश का हिस्सा बनते जा रहे हैं और इन साजिशों का शिकार होता है कम अक्ल अनपढ (अज्ञानी) मुसलमान|
जिहाद को भी यहाँ मुख्तसर तोर पे समझाना जरूरी है |जिहाद दो तरह का होता है:-
पहला- जिहाद-अल-अकबर जो एक जद्दोजहद (अहिंसात्मक संघर्ष) है जिसमें आदमी अपने सुधार के लिए मेहनत करता है और इसका मकसद अपने अंदर की बुरी सोच या बुरी ख़्वाहिशों को दबाना और कुचलना |
दूसरा है जिहाद-अल-असग़र जिसका का मकसद इस्लाम के तहफ्फुज (संरक्षण) के लिए जद्दोजहद (संघर्ष) करना होता है| जब इस्लाम की ताअ्मील (अनुपालन) की आज़ादी न दी जाए, उसमें रुकावट डाली जाए तो इस जिहाद का इस्तेमाल होता है| लेकिन आज के दौर में सबकुछ उल्टा हो रहा है!
यह भी एक हकीकत है की आम मुसलमान आज भी इन साजिशों का शिकार नहीं है! खुली फिजाओं में अमन और सुकून से रहना चाहता है लेकिन यह ज़हर आहिस्ता-आहिस्ता खतरनाक रूप ना लेने पाए इसलिए हम सबको बेदार रहना निहायत है |
इन सब साजिशों के दो मकसद है:-
एक तो मुसलमानों के बीच अन्दरूनी तकसीम और फिरकापरस्ती को बढ़ाना!
दूसरे गैर मुस्लिमों के दिलों में इस्लाम को दहशतगर्द और ज़ालिम मज़हब करार देकर इंसानों के बीच नफरत के बीज बोना |
मेरे प्यारे भाइयो आज जरूरत है इस बात की के हर इंसान बेदार रहे और इन अमन और इत्तिहाद को टुकडे-टुकडे करने वालो की नापाक साजिशों को नाकाम बनाएं!
आपकी बात से इत्तेफ़ाक रखती हूं की हर गली या हर जुमा मस्जिद के मौलवी या सऊदी बादशाहों ,अमीरों को यह हक नहीं की वो इस्लाम के मसलो में फतवे जारी किया करें!
ReplyDeleteलेकिन ....
इससे आम मुसलमान "बेवकूफ़" साबित नहीं होता क्योंकि जिन मुसलमानों के नाम से पूर्व "मुफ्ती,मौलाना,हाफीज़,हाजी,.इत्यादि " कहा जाता है उन्हें समाज यह उपाधि इसी बुनियाद पर देता की वह इस्लाम के ज्ञानी हैं और उनके दिए गए निर्देशों पर आँखें मूंदकर ऐतबार कर लेता है और उन्हें अमल में लाने की होड़ में लग जाता है!
तो कहने का मतलब यह है कि मु्फ्ती -मौलवी जैसी उपाधियां (Ranks) किस बुनियाद पर मिलतीं है ?? और कौन यह तय करता है कि वे इस्लाम के मामलातों के सर्व एवं सठीक जानकार हैं? ?
आम मुसलमान को बेवकूफ हमने भी नही कहा"
ReplyDeleteहदीस:- हर बालिग मोमिन औरत ओर मर्द को इतना इल्म सीखना फर्ज है के हराम हलाल की पहचान हो जाए!
दूसरे, मुफ्ती, मोलवी, कारी की उपाधी एक सर्टिफिकेट होता है ठीक वैसे जैसे दुनियावी ताअलीम, इन्जीनियर, डाक्टर, कलक्टर वगैरह,,,, जैसे आपको एक नाम डाक्टर मिलेगा हजारो के लिए लेकिन एक डाक्टर की फीस 1000, दूसरे की 500, तीसरा 200, ओर बहुत से 10-20 रू मे भी पुडिया बाँधकर दे दैते हैं!
हमारे मआशरे में कमी:* मुफ्ती या मोलवी बनकर हर साल हजारों की तादाद मे लोग फारिग होते हैं! उनमे से 90% वापस मदारिस से ही टच हो जाते हैं, या तो नया मदरसा खुद का खोल लिया, या कही पढाने का काम शुरु कर दिया!
जबकि हमारे इन नये उलामा हजरात को चाहिए दीनी ताअलीम हासिल करने के बाद, दुनियावी फिक्र भी करें, प्रेक्टिकली लोगों को हर चीज का इस्लामी तरीका (रास्ता) दिखाए! खुद करके,,, जैसे
मोलवी या मुफ्ती हजरात हर तबके में होंगे डाक्टर, कलक्टर, पुलिस, आर्किटेक्ट, कारोबारी, ड्राईवर, दफ्गैतर रह तो आम मुसलमान का इस्लामी तरीके पर जिन्दगी बशर करना बिल्कुल आसान हो जाएगा!
जितने मोलवी, मुफ्ती हर साल फारिग होते हैं उसका 10% भी फील्ड मे कुछ करके नही दिखाते, बल्कि वापस मदारिस के मोहतात होकर रह जाते हैं!
रही बात फतावा देने की ये काम शहर काजी का होता है! या फिर दारुल इफ्ता का,, जहाँ मुफ्ती आजम तशरीफ फरमा होते हैं! हर किसी को ना तो फतावा देने का अख्तियार है ओर ना ही सलाहियत!
जैसे मेने ऊपर लिखा:-
ReplyDeleteहर बालिग मोमिन ओरत ओर मर्द को इतना इल्म सीखना फर्ज है के हराम, हलाल की पहचान हो जाए!
बस ये ही कमी हम लोगों को ले डूबती है!